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हिन्दी का गौरव ग्रन्थ : 'मूकमाटी'
प्राध्या. डॉ. (श्रीमती) मुक्ता सिंघल आचार्य विद्यासागरजी कई वर्षों से साहित्य-साधना में रत हैं और उन्होंने अनेक कृतियों की रचना की है। उनके कृतित्व पर शोध कार्य भी हुआ है। 'मूकमाटी' का प्रकाशन सन् १९८८ में भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से हुआ है । ४८८ पृष्ठों के इस बृहदाकार काव्य ग्रन्थ को महाकाव्य कहना समीचीन होगा। यदि हम साहित्य शास्त्र के आधार पर महाकाव्य को कसौटी पर कसना चाहें तो महाकाव्य के सभी तत्त्वों की दृष्टि से खरा उतरेगा। चार खण्डों में विभक्त 'मूकमाटी'का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है।
_ 'मूकमाटी' का प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' शीर्षक से सज्जित है । इस खण्ड में घट को मंगल-घट बनाने की प्रक्रिया के माध्यम से जीवन घट को परम पुनीत सात्त्विक जीवन बनाने की ओर इंगित किया है। मंगल घट बनाने की प्रक्रिया में माटी की प्रारम्भिक दशा का चित्रण है, जिसमें कंकर-कणों से युक्त दशा है । इन बेमेल तत्त्वों की युक्तता के कारण इसका स्वरूप वर्ण-संकर है। जीवन विकारों के प्रभाव से दूषित रहता है तथा साधना के माध्यम से विकारों को नष्टकर उसी तरह शुद्ध होता है जैसे माटी कंकरों से रहित होकर शुद्ध होती और कल्याणकारी घट बनता है। इसमें अध्यात्म के धरातल पर शरीर के गठन और जीवन को साधना के माध्यम से लोक-मंगल लक्ष्य में तल्लीन एवं पूर्ण करने की प्रक्रिया को व्यक्त किया है। जिस तरह जब तक माटी में से कंकरों को अलग कर माटी शुद्ध नहीं कर लेता तब तक कुम्भकार मंगल घट तैयार नहीं कर सकता, उसी प्रकार बड़ी ही सहजता से यहाँ जीवन का दृष्टिकोण निरूपित हुआ है। जब तक हम दुर्बलताओं और दूषित भावनाओं को नष्ट नहीं कर लेते तब तक अपने जीवन रूपी घट का मंगलरूप निर्माण नहीं कर सकते । कुम्भकार द्वारा कूप से पानी निकालते समय मन में उठने वाली भावनाओं की ओर बड़ी ही कुशलता और सजीवता से ध्यान आकृष्ट किया है। हिंसा से बचने के लिए पूर्ण सतर्कता का चित्रण करते हुए माटी की पावनता व्यक्त की है। बालटी में पानी के साथ मछली आ जाती है। हिंसा से बचने के लिए पूर्ण सतर्कता दिखाते हुए मछली और माटी का वार्तालाप उल्लेखनीय है । कवि का यह कथन युक्तिसंगत प्रतीत होता है :
“यहाँ पर इस युग से/यह लेखनी पूछती है/कि/क्या इस समय मानवता पूर्णतः मरी है ?/क्या यहाँ पर दानवता/आ उभरी है? लग रहा है कि/मानवता से दानवत्ता/कहीं चली गई है ?
और फिर/दानवता में दानवत्ता/पली ही कब थी वह ?" (पृ. ८१-८२) आज आत्मा का हनन, मानवता का पतन और मानवीय मूल्यों में जो अवमूल्यन लक्षित हो रहा है, उसे बड़े ही सरल और स्पष्ट रूप से कवि ने कह दिया है ।
___ 'मूकमाटी' में दूसरा खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' शीर्षक से बद्ध है । यह निर्विवाद रूप से प्रतीकात्मक ही है। कवि ने स्पष्ट करना चाहा है कि उच्चारण मात्र 'शब्द' है और शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझना बोध' है। इस बोध को पूर्ण रूप से ग्रहण करना 'शोध' है। अक्षर-ज्ञान और अर्थ-ज्ञान जीवन के सही अर्थ को उजागर नहीं करते । इनके आधार पर प्राप्त ज्ञान को जीवन की गहराई से जोड़कर जब हम जीवन में कल्याणमार्गी विचारों और आचरण को सात्त्विकता और उदात्तता की परिधि में उतारते हैं, साधारण और असाधारण के अन्तर को समझकर अध्यात्म के मार्ग पर मानवता की प्रधानता स्थापित करते हैं, तब बोध का शोध पूर्ण होता है । कुम्भकार की कुदाली