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मूकमाटी-मीमांसा :: 311 यही अर्थ निकलता है/या "द''द''या !" (पृ. ३८) शब्दों के साथ कवि की क्रीड़ा सर्जनात्मक है, विध्वंसात्मक नहीं। कलशी' शब्द के साथ कवि की क्रीड़ा उसे रीतिकालीन कवियों के समकक्ष ला खड़ा करती है, जिनका भाषा चातुर्य आश्चर्य का विषय है। कवि ने प्रत्येक पंक्ति के अन्त में कलशी' शब्द का प्रयोग किया है किंचित् रूप परिवर्तन के साथ और इस रूप परिवर्तन से छोटी-सी कलशी में विभिन्न अर्थों का सागर समा गया है । देखें:
“ओरी कलशी!/कहाँ दिख रही है तू/कल "सी ? केवल आज कर रही है/कल की नकल-सी! ...अकल के अभाव में/पड़ी है काया अकेली
कला-विहीन विकल-सी।" (पृ. ४१७) यद्यपि काव्य की रचना मुक्त छन्द में हुई है किन्तु इसमें गीतात्मकता का अभाव नहीं है। सर्वत्र स्वर, ताल और लय का संगम दृष्टिगत होता है। कहना न होगा लय के मोह में कहीं-कहीं ऐसे ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी किया गया है जो किंचित् खटकते हैं।
कवि अलंकारों का बादशाह है । सभी शब्दालंकार और अर्थालंकार उसके समक्ष हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। कहीं अनुप्रास की रुन झुन सुनाई देती है तो कहीं रूपक का वैभव बिखरा पड़ा है; कहीं श्लेष का चमत्कार है तो कहीं उपमा, उत्प्रेक्षाओं की लड़ी गुंथी है । अनेक स्थलों पर कवि ने नितान्त नवीन उपमाओं का प्रयोग किया है । देखें :
0 "लवणभास्कर चूरण-सी/पंक्तियों काम कर गईं।" (पृ. ४४३) 0 “तरल-तरंगों से रहित/धीर गम्भीर हो बहने लगी,
हावों-भावों-विभावों से मुक्त/गत-वयना नत-नयना चिर-दीक्षिता आर्या-सी!" (पृ. ४५५) 0 "कुम्भ के मुख पर प्रसन्नता है/प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण
परिश्रमी विनयशील/विलक्षण विद्यार्थी-सम।" (पृ. ४५५) ये मौलिक उपमाएँ कवि के सन्त परिवेश की उपज हैं। - उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से सन्त कवि की यह काव्यकृति आधुनिक कविता को एक नया आयाम देती है। कवि की अनुभूति जितनी गहरी है, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही प्रभविष्णु है । यह कविता कवि के हृदय से निस्सृत हुई है, इसलिए हृदय तक पहुँचती है । अध्यात्म की गंगा, काव्य की कालिन्दी और शिल्प की सरस्वती को अपने में समेटे यह कृति, कृतिकार के नाम को सार्थकता प्रदान करती हुई स्वयं विद्या का सागर बन गई है। इसमें अवगाहन करने वालों पर कवि बिहारी की निम्न पंक्ति अक्षरश: लागू होती है :
"अनबूड़े बूड़े, तरे जे बूड़े सब अंग।"(९४)