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310 :: मूकमाटी-मीमांसा
0 "कठोर कर्कश कर्ण-कटु/शब्दों की मार सुन
दशों-दिशायें बधिर हो गईं,/नभ-मण्डल निस्तेज हुआ।" (पृ. २३२) काव्य के कलापक्ष की कसौटी पर भी यह कृति खरी उतरती है। इसकी भाषा व्याकरणनिष्ठ, खड़ी बोली है, जिसमें यथास्थान संस्कृत के तत्सम, तद्भव और उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । प्रसंगवश बोलचाल के ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी कवि ने किया है जिससे भाषा में सुकुमारता, ध्वन्यात्मकता और संगीतात्मकता का समावेश हुआ है। कतिपय उदाहरण देखें : “सर पर पल्ला नहीं है" (पृ. १);"जो सरपट सरक रही है" (पृ. ३); "उजली-उजली जल की धारा" (पृ. ८); "बोधि की चिड़िया वह/फुर्र क्यों न कर जायेगी ?/क्रोध की बुढ़िया वह/गुर्र क्यों न कर जायेगी' (पृ. १२); हिम की डली खा लेता है" (पृ. ५४)।
भाषा में लोकोक्तियों और मुहावरों का भी सुन्दर प्रयोग हुआ है । लोकोक्तियों को छन्द के साँचे में फिट करने में कवि का कौशल प्रशंसनीय है। “बिन माँगे मोती मिले/माँगे मिले न भीख'(पृ. ४५४); "पूत का लक्षण पालने में" (पृ. १४ एवं ४८२); "गागर में सागर''(पृ. ४५३); "भीति बिना प्रीति नहीं "(पृ. ३९१); “पानी-पानी हो जा"(पृ. ५३) आदि लोकोक्तियों एवं मुहावरों ने भाषा को लाक्षणिक सौन्दर्य प्रदान किया है।
प्रसंगवश अनेक जैन एवं बौद्ध मन्त्रवाक्य भी भाषा में गूंथे गए हैं । “धम्मं सरणं गच्छामि''(पृ. ७०); "परस्परोपग्रहो जीवनाम्'' (पृ. ४१); "धम्मो दया-विसुद्धो" (पृ. ७०); "खम्मामि, खमंतु में" (पृ. १०५) आदि ऐसे ही प्रयोग हैं । कतिपय स्थलों पर कवि के अपने कथन ही गम्भीर अर्थवत्ता के कारण सूक्ति बन गए हैं । जैसे"बिना सन्तोष, जीवन सदोष है" (पृ. ३३९); "असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है...' (पृ. ९); "पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है" (पृ. ३३); "स्व की उपलब्धि ही सर्वोपलब्धि है" (पृ. ३४०)।
विवेच्य कृति के अभिव्यक्ति कौशल का सबसे बड़ा आकर्षण शब्दों के साथ कवि की खिलवाड़ है। कवि ने शब्दों की परतों को भेदकर उनमें मौलिक अर्थों की प्रतिष्ठापना इस चातुर्य से की है कि कवि के उक्ति-वैचित्र्य और कल्पना चमत्कार दोनों की दाद देनी पड़ती है। उदाहरणार्थ :
- "हम हैं कृपाण/हम में कृपा न!" (पृ. ७३) 0 "कम बलवाले ही/कम्बलवाले होते हैं।" (पृ. ९२) 0 "यही मेरी कामना है/कि/आगामी छोरहीन काल में
बस इस घट में/काम ना रहे !" (पृ. ७७) 0 "यह निन्द्य कर्म करके/जलधि ने जड़-धी का,
बुद्धि-हीनता का, परिचय दिया है।” (पृ. १८९) इस प्रकार के पचासों उदाहरण गिनाए जा सकते हैं । शब्दों के ये व्युत्पत्तिपरक मौलिक अर्थ मन को चमत्कृत करते हैं। शब्दों के विलोमार्थ भी इतने सटीक हैं कि कवि के बुद्धि चातुर्य का लोहा मानना पड़ता है, यथा :
- "राही बनना ही तो/हीरा बनना है,/स्वयं राही शब्द ही
विलोम-रूप से कह रहा है-/रा"ही"ही"रा।" (पृ. ५७) 0 "राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?
रा"ख"ख"रा!" (पृ. ५७) 0 "स्व को याद ही/स्व-दया है/विलोम-रूप से भी