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308 :: मूकमाटी-मीमांसा
आनन्द की इस चरम स्थिति में महाकाव्य का पर्यवसान पाठक को आत्मविभोर कर देता है । महामौन में सन्त डूबा और मामूक होकर अनिमेष निहारना कितना मनोवैज्ञानिक है ! इस अतिशय आनन्द को जिह्वा क्यों कर वर्णित कर पाएगी ?
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“When the heart is full, the tongue is dumb.'
जब शब्द हार जाते हैं, तब मौन मुखर होता है। अलौकिक आनन्द का यह वातावरण हमें अनायास महाकवि जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी' (आनन्द सर्ग) की निम्न पंक्तियों का स्मरण दिला देता है :
" समरस थे जड़ या चेतन / सुन्दर साकार बना था; चेतनता एक विलसती / आनन्द अखण्ड घना था । "
विवेच्य कृति को निस्सन्देह रूपक काव्य कहा जा सकता है जो अँग्रेजी के Allegory का पर्याय है । इस प्रकार की रचना में प्राय: एक द्वयर्थक कथा होती है जिसका एक अर्थ प्रत्यक्ष और दूसरा गूढ़ होता है । सम्पूर्ण महाकाव्य में रूपक तत्त्व के निर्वाह में कवि को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है । कवि का यह वर्णन कौशल उसे प्रसिद्ध सूफी कवि जायसी समकक्ष प्रतिष्ठापित करता है, जिनके प्रसिद्ध महाकाव्य 'पदमावत' में रत्नसेन और पदमावती की कथा के माध्यम से सूफी सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है। गुरु की महत्ता के प्रतिपादन और साधना पथ के कष्टों की अनिवार्यता के सम्बन्ध में दोनों महाकाव्यों में पर्याप्त साम्य है । 'मूकमाटी' का कुम्भकार और पदमावत का हीरामन तोता दोनों ही सांसारिक आत्मा के परिष्कार में, गुरु की भूमिका का निर्वाह करते हैं। पदमावती रूपी परमात्मा के निवास स्थान सिंघल द्वीप पहुँचने में राजा रत्नसेन का सातों समुद्रों को पार करना साधना पथ के विभिन्न उपसर्ग और परीषहों को सहन करना है ।
इस काव्यकृति की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि पाठकों के ऊपर अध्यात्म थोपा नहीं गया है अपितु वह कथा सूत्र के माध्यम से प्रसंगवश अनायास व्याख्यायित होता चला गया है । कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं । स्फटिक की झारी और माटी के कुम्भ के मध्य होने वाली नोंक-झोंक में, कितनी सहजता और सरलता से जैन दर्शन के अनुसार सम्यग्ज्ञान की व्याख्या कर दी गई है।
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'स्व' को स्व के रूप में / 'पर' को पर के रूप में / जानना ही सही ज्ञान है, और/'स्व' में रमण करना / सही ज्ञान का 'फल' ।” (पृ. ३७५)
आज तक उपादान और निमित्त का विवेचन बड़ा विवादास्पद और नीरस रहा है। आचार्यश्री ने रस्सी की सहायता से नदी पार करने वाले सेठ परिवार के संवादों के माध्यम से इस शुष्क एवं क्लिष्ट विषय का कितना स्पष्ट एवं तार्किक विवेचन किया है :
“उपादान - कारण ही / कार्य में ढलता है /यह अकाट्य नियम है, किन्तु / उसके ढलने में / निमित्त का सहयोग भी आवश्यक है, इसे यूँ कहें तो और उत्तम होगा कि / उपादान का कोई यहाँ पर
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पर-मित्र है तो वह / निश्चय से निमित्त है ।” (पृ. ४८१)
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अनेकान्त या स्याद्वाद भारतीय दर्शन को जैन दर्शन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन है । अनेकान्त के सिद्धान्त को न समझने वाले इसे अनिश्चयवाद की गर्हित संज्ञा प्रदान करते हैं । कवि ने कुम्भ के मुखमण्डल पर अंकित 'ही' और