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आधुनिक हिन्दी काव्य - साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि : 'मूकमाटी'
डॉ. मालती जैन
आचार्य श्री विद्यासागरजी की अनुपम कृति 'मूकमाटी' आधुनिक हिन्दी काव्य - साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है । इस विशालकाय ग्रन्थ को यदि अध्यात्म, विज्ञान और काव्य की त्रिवेणी की संज्ञा से अभिहित किया जाए तो अतिशयोक्ति न होगी । यह सरस मर्मस्पर्शी काव्यकृति इस परिप्रेक्ष्य में और अधिक विस्मयकारी प्रतीत होती है कि इसके सृजन का उत्स एक सन्त का वीतराग हृदय है, जो इस भौतिक संसार से उदासीन है। राग और विराग, हृदय और मस्तिष्क दोनों का ऐसा विचित्र सम्मिलन दुर्लभ नहीं तो अतिशय प्रयत्नसाध्य अवश्य है । रचनाकार ने जहाँ एक ओर अध्यात्म के अथाह सागर में डुबकियाँ लगाकर गूढ़ दार्शनिक सिद्धान्तों के मौक्तिक ढूँढ़ निकाले हैं, वहाँ दूसरी ओर एक सहृदय भावुक कवि की आँखों से इस संसार सागर की उत्ताल तरंगों के नर्तन को भी निहारा है । यह सम्पूर्ण प्रकृति उसे माया प्रतीत नहीं होती अपितु प्रकृति नटी के प्रत्येक क्रियाकलाप में उसे कुछ मौन सन्देश श्रवणगत होता है। कहना न होगा, उसका विरागी मन प्रकृति में खूब रमा है ।
इस महाकाव्य की मूल संवेदना का आधार भी प्रकृति ही है । संकोचशीला, लाजवती, लावण्यवती, पददलिता, सुख-मुक्ता, दुःख-युक्ता सरिता तट की माटी, इस महाकाव्य की नायिका है, जो मुमुक्षु आत्मा का प्रतीक है । माँ धरती के सम्मुख यह मूक माटी मुखर होती है, व्यक्त करती है अपनी अव्यक्त पीड़ा को इन शब्दों में :
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" इस पर्याय की / इति कब होगी ? / इस काया की / च्युति कब होगी ?" (पृ. ५)
कितनी करुणा है उसके इस आकुल निवेदन में !
"और सुनो, / विलम्ब मत करो / पद दो, पथ दो / पाथेय भी दो माँ ! " (पृ. ५)
धरती, जो अन्तश्चेतना का प्रतीक है, माटी को आस्था के तारों पर साधना की उँगलियाँ चलाने का उपदेश देती है और इस तरह रचनाकार बड़े रोचक ढंग से जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त 'सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्ग : ' का प्रतिपादन कर देता है ।
धरती माटी को यह शुभ सन्देश भी देती है कि कल के स्वर्णिम प्रभात में कुम्भकार उसे पतित से पावन आएगा । उसे समर्पण भाव समेत, उसके सुखद चरणों में प्रणिपात करके अपनी मुक्ति - य - यात्रा का सूत्रपात करना है । कुम्भकार गुरु का प्रतीक है। वह मिट्टी को साधना मार्ग रूपी गदहे पर लादकर अपनी योगशाला रूप धर्मस्थली में ले आता है। माटी के लोदे से कुम्भ के रूप में परिणत होने की प्रक्रिया में, माटी को कठिन अग्नि परीक्षा से गुज़रना होता है। इस कष्ट सहन में छिपा है जैन दर्शन का यह त्रैकालिक सत्य :
" परीषह - उपसर्ग के बिना कभी
स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि / न हुई, न होगी ।" (पृ. २६६ )
माटी का परिपक्व कुम्भ के रूप में परिवर्तित होना परिष्कृत आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना है। कथा के अन्त में यह ज्ञानी आत्मा वीतरागी सन्त के चरणों में समर्पित होकर मुक्त हो जाती है :
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"महा- मौन में/ डूबते हुए सन्त / और माहौल को अनिमेष निहारती - सी / मूक- माटी ।" (पृ. ४८८ )