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'मूकमाटी' : संग्रहणीय एवं चिन्तन-मनन के योग्य उत्तम काव्य कृति
प्रो. (डॉ.) छबिनाथ तिवारी
जैनाचार्य विद्यासागर कृत ‘मूकमाटी' धर्म, दर्शन और अध्यात्म की पृष्ठभूमि पर रचित एक ऐसी काव्य कृति है जो ‘माटी' जैसे सामान्य पदार्थ को महाकाव्यात्मक अभिव्यक्ति का विषय बनाने में समर्थ हुई है ! लगभग ५०० मुद्रित पृष्ठों में फैली हुई रचना साधारण ( माटी) की निरीहता, उपेक्षा, सन्त्रास, व्यथा और चिन्ता को इतना महनीय बना देती है कि वह किसी ख्यात इतिहास या पौराणिक चरित की समता में भी श्लाघ्य लगती है ।
साधारण किंवा तुच्छ (माटी) की मूक वेदना और स्वातन्त्र्य चेतना को वाणी देना विरक्त या निर्लेप व्यक्तित्व की अथवा साधक की जागरूक साधना की फलश्रुति होती है, क्योंकि उनकी समभाव युक्त सम्यक् दृष्टि साधारण के मर्म को पढ़ लेने में सहज समर्थ होती है । इस निकष पर आलोच्य कृति खरी उतरती है । आचार्य विद्यासागर की ऋषिवत् करुण दृष्टि मिट्टी की अटल सत्ता और भव्यता की सही पहचान इस कृति में करती दिखाई देती है । जिस प्रकार कोई कुम्हार मिट्टी को शुद्ध कर, उसमें यथोचित मीसन (जामन) डालकर, गीला कर, उसे मचाकर, तदनन्तर उसमें श्रम का अर्घ्य चढ़ा कर उसे मृदु बना लेता है, चक्के पर चढ़ा कर आकार देता है फिर आँवे की आँच से श्याम से रक्तिम आभा देकर अर्चना का मंगल-घट बनाकर, मिट्टी को सर्वथा वन्दनीय बना देता है । तद्वत् आचार्य विद्यासागर इस कृति माटी को न केवल मंगल रूपाकृति देते दिखाई देते हैं अपितु साधारण की जीवन-यात्रा को सार्थक परिणति भी प्रदान करते हैं । ग्रन्थान्त में आई हुईं ये पंक्तियाँ सर्वथा अवलोक्य हैं :
"बन्धन - रूप तन, / मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही मोक्ष है । / इसी की शुद्ध - दशा में / अविनश्वर सुख होता है जिसे / प्राप्त होने के बाद, / यहाँ / संसार में आना कैसे सम्भव है तुम ही बताओ !" (पृ. ४८६-४८७)
वस्तुतः सन्त कवि अपनी चिन्तनधारा के अनुरूप ही जीवन के चरम लक्ष्य को परिभाषित करता है । अन्य जन उसके जीवनानुभवों से समस्वरता स्थापित करें या न करें, कदाचित् सन्त कवि को यह अचिन्त्य ही है ।
'मूकमाटी' काव्य चार बृहत् खण्डों में विभक्त किया गया है - खण्ड पहला- 'संकर नहीं : वर्ण - लाभ; दूसरा - ' शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं;' तीसरा - 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन;' चौथा - 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' ।
प्रथम खण्ड में सन्त कवि ने शीर्षक के नामकरण के अनुरूप मिट्टी की वर्ण संकरता को दूर कर उसे वर्णलाभ अर्थात् शुद्ध दशा में पहुँचाने का यत्न किया है। वह कहता है :
"नीर का क्षीर बनना ही / वर्ण-लाभ है, / वरदान है । / और क्षीर का फट जाना ही / वर्ण संकर है/ अभिशाप है ।" (पृ. ४९)
द्वितीय खण्ड में कवि ने मिट्टी के मार्दव में निर्मल जल के मिलन को नव प्राण पाने का उपक्रम बताया है। जल अज्ञानी है। माटी जैसे महाज्ञानी के चरणों में बैठ कर वह नवज्ञान पा जाता है।
इस खण्ड में सन्त कवि के साहित्यिक परिज्ञान का प्राकट्य भी होता है। उसने नव रसों की अपनी परिभाषाएँ दी हैं। ऋतुवर्णन परंम्परा का अंदाज़े-बयाँ कुछ भिन्न ही है। द्रष्टव्य है एक दृश्य चित्र
:
" जहाँ कहीं भी देखा / महि में महिमा हिम की महकी, / और आज !