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त्रिविध रूप बन जाते हैं :
" जैसी संगति मिलती है/ वैसी मति होती है/मति जैसी, अग्रिम गति मिलती जाती‘“मिलती जाती / और यही हुआ है / युगों-युगों से भवों - भवों से !” (पृ. ८)
इस क्रम में कोई परिवर्तन न तो आया है और न ही आने की सम्भावना है ।
जल तत्त्व का एक स्वभाव होता है कि वह फैलता जाता है किन्तु माटी की संगति उसमें बदलाव प्रस्तुत कर देती है :
मूकमाटी-मीमांसा :: 315
'अलगाव से लगाव की ओर / एकीकरण का आविर्भाव
... जलतत्त्व का स्वभाव था - / वह बहाव
इस समय अनुभव कर रहा है ठहराव । / ... अस्थिर को स्थिरता मिली अचिर को चिरता मिली/ नव-नूतन परिवर्तन
!” (पृ. ८९)
हिंसा-अहिंसा पर भी एक सुन्दर विवेचना कवि ने प्रस्तुत की है।
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" हिंसा की हिंसा करना ही / अहिंसा की पूजा है. प्रशंसा, / और
हिंसक की हिंसा या पूजा / नियम से / अहिंसा की हत्या है " नृशंसा ।" (पृ. २३३)
जीवन में विकास - उन्नति सहज नहीं है :
" परीषह - उपसर्ग के बिना कभी / स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी / त्रैकालिक सत्य है यह !” (पृ. २६६)
जीवन में अग्नि परीक्षा देने पर भी दुनिया बिना परखे स्वीकार नहीं करती :
"यह सच है कि / तुमने अग्नि- परीक्षा दी है, / परन्तु अग्नि ने जो परीक्षा ली है तुम्हारी / वह कहाँ तक सही है, यह निर्णय / तुम्हारी परीक्षा के बिना सम्भव नहीं । / यानी,
तुम्हें निमित्त बनाकर/अग्नि की अग्नि परीक्षा ले रहा हूँ ।" (पृ.३०३-३०४)
जीवन में परीक्षक की परीक्षा भी अनिवार्य हो जाती है ।
एक कुशल शिल्पी, कण-कण के रूप में बिखरी माटी को नाना रूप प्रदान करता है। यह उसका शिल्प ही है ATTACT को सार्थक बनाता है, अर्थवान् बना देता है । यही उसका कर्म है। उसने अपनी संस्कृति को विकृत नहीं बनाया है । वह शिल्पी से कुम्भकार बना:
"युग के आदि में / इसका नामकरण हुआ है / कुम्भकार ! 'कुं' यानी धरती/ और / 'भ' यानी भाग्य - / यहाँ पर जो भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो / कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ. २८)