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मूकमाटी-मीमांसा :: 309 'भी' इन दो अक्षरों के द्वारा अनेकान्त का कितना बोधगम्य विवेचन किया है, यथा :
"अब दर्शक को दर्शन होता है-/कुम्भ के मुख मण्डल पर 'ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का। ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक । हम ही सब कुछ हैं/यूँ कहता है 'ही' सदा, तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो !/और,/'भी' का कहना है कि हम भी हैं/तुम भी हो/सब कुछ !/ 'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को
'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को।” (पृ. १७२-१७३) कवि का प्रमुख लक्ष्य जैन धर्म के तात्त्विक और व्यावहारिक दोनों पक्षों का विवेचन करना है । उसे कथाप्रसंगों के मध्य जहाँ कहीं भी अवसर मिला है, उसने बड़ी कुशलता से रोचक ढंग से अपनी बात कह दी है। जैन मुनि के आहार-ग्रहण की विधि, जलगालन विधि एवं जैन साधुओं की चर्या से सम्बन्धित अन्य क्रिया-कलाप, सभी के मनोहारी शब्द-चित्र इस कृति में प्राप्त होते हैं। जैन साधु की आहार-विधि का एक चित्र देखें :
" 'भो स्वामिन् !/नमोस्तु ! नमोस्तु ! नमोस्तु ! अत्र! अत्र ! अत्र!/तिष्ठ! तिष्ठ ! तिष्ठ!'
यूँ सम्बोधन-स्वागत के स्वर/दो-तीन बार दोहराये गये।" (पृ. ३२२) इस महाकाव्य का एक उल्लेखनीय आकर्षण यह है कि अध्यात्म जैसे गम्भीर विषय से सम्पृक्त होने पर भी यह सामयिक युग-बोध से अछूता नहीं है। निस्सन्देह इसका रचनाकार 'कोलाहल की अवनि से दूर' प्रकृति की सुरम्य गोद में बैठकर आत्मचिन्तन में लीन रहता है किन्तु वह अपने चतुर्दिक् परिवेश से उदासीन नहीं है । अपनी पैनी दृष्टि से वह वर्तमान समाज की विसंगतियों का सूक्ष्म निरीक्षण करता है और गम्भीर चिन्तन के उपरान्त प्रस्तुत करता है ज्वलन्त समस्याओं का स्वीकार्य समाधान । परिणामस्वरूप इस महाकाव्य में वर्तमान युग की सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक आत्मा स्पन्दित होती हुई दृष्टिगत होती है । मत्कुण और सेठ के संवाद में कवि ने बहुओं पर अत्याचार और श्रमिकों का शोषण जैसी घ्रणित प्रथाओं पर तीखे व्यंग्य किए हैं :
"परन्तु खेद है कि/लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।/प्राय: अनुचित रूप से/सेवकों से सेवा लेते
और/वेतन का वितरण भी अनुचित ही।/ये अपने को बताते
मनु की सन्तान !/महामना मानव !" (पृ. ३८६-३८७) आज की सर्वाधिक ज्वलन्त समस्या आतंकवाद पर भी कवि ने अपने विचार प्रकट किए हैं और कुछ भयानक चित्र भी प्रस्तुत किए हैं, यथा :
0 "जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती
धरती यह,/ये आँखें अब/आतंकवाद को देख नहीं सकतीं, ये कान अब/आतंक का नाम सुन नहीं सकते।" (पृ. ४४१)