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उदात्त साधना का महाकाव्य 'मूकमाटी' : एक दृष्टि
डॉ. उमा शंकर शुक्ल
जैनाचार्य विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' उदात्त साधना की विकास यात्रा का मनोरम आख्यान है । इस महाकाव्य में वर्णित साधना लौकिक और अलौकिक दोनों ही धरातलों पर युगपत् अग्रसर दृष्टिगोचर होती है। कर्मशील मनुष्य संयमपूर्वक अपने कर्त्तव्य का परिपालन करके जहाँ पार्थिव समृद्धि की ऊँचाई तक पहुँचता है, वहीं वह अन्त: साधना करके विशिष्ट चेतनाशक्ति से संवलित होकर ऊर्ध्वलोक के आध्यात्मिक शिखरों पर सफलतापूर्वक आरोहण करता है। यही इस चामत्कारिक महाकाव्य 'मूकमाटी' का प्रशस्त और महत् सन्देश है । मूक मिट्टी दुर्बल 'मनुष्य' को सत्कर्म साधना में प्रवृत्त होने की सम्प्रेरणा देकर उसे अध्यात्म के चरम उत्कर्ष पथ अर्थात् शिव सोपान पर अग्रसर होने और पहुँचने को प्रतीकित करती है । इस महाकाव्य की वैचारिक भूमि व्यापक और पुष्ट है । अध्यात्म प्रधान काव्य होने पर भी इसमें नवीन युगबोध है और शिल्प के धरातल पर सपाटबयानी, शब्द क्रीड़ा का कौतुक तथा नव-नव अर्थच्छवियों
आकर्षण भी । इसमें प्रयुक्त मुक्त छन्द में आन्तर लय, अतुकान्तता और सतुकान्तता की अनेक रंग - रेखाएँ यत्र-तत्र सहज ही उभरी हैं । इसकी कथावस्तु अत्यन्त सामान्य है किन्तु कवि की वर्णनाशक्ति ने उसे विशिष्ट, सप्राण और प्रभावकारी बना दिया है । इसके कथासूत्र का मूल उत्स ज्ञानमार्गी सन्त कबीर और लोकनायक रामभक्त कवि तुलसी के निम्नांकित स्वरों में भी झंकृत मिलता है :
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"गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ि - गढ़ि कादै खोट । अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।'
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“बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु । गावहिं बेद पुरान, सुख कि लहिय हरि भगति बिनु ॥ "
इस महाकाव्य की कथावस्तु चार खण्डों में विभाजित की गई है। इसके प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में मिट्टी के संस्कार की प्रक्रिया वर्णित है, जिससे उसकी संकरता अर्थात् विकारयुक्त वस्तुओं की मिलावट समाप्त होती है और उसे शुद्ध, मृदुल, सहज वर्ण की उपलब्धि होती है। द्वितीय खण्ड ' शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में मिट्टी के उत्खनन की क्रिया का रोचक वर्णन है । कुम्हार अपनी कुदाली से मिट्टी खोदना प्रारम्भ करता है । अकस्मात् उसकी कुदाली का प्रहार एक काँटे पर होता है और वह आहत होकर प्रतिशोध की भावना से भर उठता है । किन्तु बाद में जब कुम्हार को अपनी असावधानी का ध्यान आता है तो उसे पश्चाताप होता है और वह आत्मग्लानि का अनुभव करता है। इस खण्ड में कवि ने साहित्य, संगीत, रस, प्रकृति निरूपण आदि का बहुविध परिचय दिया है। तृतीय खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' के अन्तर्गत मिट्टी की अथक साधना द्वारा पुण्योपलब्धि की मांगलिक स्थिति की प्राप्ति का आख्यान है । चतुर्थ खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में गुरु रूपी कुम्हार द्वारा उसे घट रूप देकर परिपक्व बनाने के सन्दर्भ में कठोर सन्ताप दिए जाने का वर्णन है । यहाँ कथावस्तु बहुआयामी हो उठी है । विविध पार्थिव-अपार्थिव मनोभूमियों पर अगणित भावनाओं - विचारों का आविर्भाव - तिरोभाव यहाँ कवि की विलक्षण कल्पनाशक्ति तथा सूक्ष्म-निगूढ़ तत्त्वचिन्तन को बहुश: रेखांकित करता है । अन्तत: कृतिकार ने अपने उदात्त लक्ष्य का उद्घाटन भी मार्मिक ढंग से इस प्रकार किया है :