________________
298 :: मूकमाटी-मीमांसा
७. ऐतिहासिक दृष्टिकोण का अभाव : बीसवीं सदी में सभी विचारक विद्वान् यह अनुभव करते हैं कि अध्यात्मप्रवीण दिगम्बरों की इतिहास निरपेक्षता ने इस सम्प्रदाय को अनेक कोणों से हानि पहुँचाई है । यह तो अच्छा रहा कि दसवीं सदी के बाद के अनेक आचार्यों ने कम-से-कम अपनी कृतियों में अपना परिचय तो दिया। इसके पूर्व के अनेक आचार्यों ने इस विषय में मौन रखा । फलतः आज भी उनके जीवन चरित अनिर्धारक चर्चा के विषय बने हुए हैं और विचारों के, ज्ञान प्रवाह के विकास की कड़ियों के निर्धारण में कठिनाई पैदा कर रहे हैं। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने अपने ग्रन्थों में अपने परिचय की परम्परा मान्य की है। उनके पट्टशिष्य 'मूकमाटी' के महाकवि ने इस परम्परा की
अपने काव्य में उपेक्षा कर न केवल गुरु-परम्परा में व्याघात किया है अपितु काव्य की साहित्यिक ऐतिहासिकता की भी उपेक्षा की है । अध्यात्म जगत् में, वस्तुतः ऐतिहासिकता होती ही नहीं, वह तो त्रैकालिक माना जाता है । पर 'मूकमाटी' के समकालिक जगत् में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जैसे समय के प्रवाह में माटी विभिन्न चरणों में घटकलश बनती है, वैसे ही संसारी जीव भी समय के प्रवाह में अध्यात्ममुखी हो जाता है, फलतः कवि-परिचय / परम्परापरिचय आवश्यक लगता है । इसके न होने से महाकाव्य में एक कमी-सी परिलक्षित होती है ।
इन बिन्दुओं की ओर समुचित ध्यान दिए जाने पर इस महाकाव्य की महत्ता और प्रभावकता काफी बढ़ । इस महाकाव्य के महाकवि का महाभिवन्दन ।
सकती
'बोलती माटी'
'मूकमाटी' की कुछ विशेषताओं के परिधान में १९९५ में 'बोलती माटी' काव्य प्रकाशित हुआ है। उसके एक परामर्शदाता ने इसके प्रकाशन के पूर्व उसकी पाण्डुलिपि को जलाकर प्रायश्चित करने तक का सुझाव दिया था, पर उसे अमान्य कर दिया गया । फलतः यह काव्य कितना लोकप्रिय हुआ होगा, यह चर्चनीय है। इसमें 'मूकमाटी' में वर्णित तेरह सैद्धान्तिक एवं चर्यात्मक चर्चाओं को विशिष्ट पन्थ की मान्यताओं के आधार पर व्याख्यायित किया गया है। इसमें सन्देह नहीं कि विभिन्न आचार/चर्याएँ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार परिवर्तनीय रही हैं । इन परिवर्तनों में ही जीवन्तता निहित होती है । इनके विषय में मान्यताएँ व्यक्ति, विद्वान् या साधुजन के विवेक पर निर्भर करती हैं । अनेक प्राचीन और अर्वाचीन जैन शास्त्र अनेक प्रकार के सैद्धान्तिक विरोधाभासों से भरे पड़े हैं। उन्हें दूर करने के लिए मात्र केवली को ही समर्थ माना गया है । फलत: महाकाव्य में वर्णित विचारधाराएँ या मन्तव्य अनेकान्त दृष्टि से ही विचारणीय हैं । इस दृष्टि से मुझे लगता है कि 'मूकमाटी' की मूकता में जो सरसता और प्रेरकता है, वह 'बोलती माटी' में दिखाई नहीं देती। फिर भी, इसकी सचित्र एवं अनुकृत काव्य शैली पाठकों को किंचित् आनन्द तो देती ही है।
पृ. ४८३ निसर्ग से ही
सृज-धातु की भाँति
भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा. तुमने स्वयं को......
हुआ!