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मूकमाटी-मीमांसा :: 301 और/अन्यत्र रमना हो/भ्रमना है/मोह है, संसार है...!" (पृ. ९३) . "पर से स्व की तुलना करना/पराभव का कारण है
दीनता का प्रतीक भी ।" (पृ. ३३९) 'मूकमाटी' में रचयिता ने अनेक परिभाषाओं और उक्तियों से अनेक पक्षों को स्पष्ट किया है, यथा :
0 “संप्रेषण वह खाद है/जिससे, कि/सद्भावों की पौध/पुष्ट -सम्पुष्ट होती है
उल्लास-पाती है;/संप्रेषण वह स्वाद है;/जिससे कि/तत्त्वों का बोध
तुष्ट-सन्तुष्ट होता है/प्रकाश पाता है।” (पृ. २३) 0 "धरती शब्द का भी भाव/विलोम रूप से यही निकलता है -
धरती तीर"/यानी,/जो तीर को धारण करती है या शरणागत को/तीर पर धरती है ।/वही 'धरती' कहलाती।" (पृ. ४५२) "सब कुछ तज कर,/वन गये/नग्न, अपने में मग्न बन गये उसी ओर"/ उन्हीं की अनुक्रम-निर्देशिका/भारतीय संस्कृति है सुख-शान्ति की प्रवेशिका है।” (पृ. १०३)
"प्रमाद पथिक का परम शत्रु है।” (पृ. १७२) 0 “अध्यात्म स्वाधीन नयन है।" (पृ. २८८)
। “रोग का शोधन है नीरोगता।” (पृ. ३५३) 'मूकमाटी' महाकाव्य के रचयिता ने इसमें अनेक उक्तियों, सार्थक वक्तव्यों एवं सटीक सारगर्भित परिभाषाओं के द्वारा जहाँ दार्शनिक कवि होने का परिचय दिया है, वहाँ प्रकृति के अनेक स्थल विशेष रमणीय सन्दर्भ इस काव्य की शोभा की श्रीवृद्धि में सहायक रहे हैं। वैसे समस्त काव्य ही प्रकृति का खेल प्रतीत होता है । माटी, कंकर, कुम्भ, नदी, चन्द्रमा, सूर्य, पर्वत, पवन, सभी ऋतुएँ प्रकृति की विविधता के परिचायक हैं। फिर इसमें कवि ने इन्हें मानवीय आधार प्रदान किया है, नाटकीय शैली में अपने अनुभवों को मूर्तिमान् करना चाहा है । माटी के विभिन्न रूप और उसकी महत्ता इसमें द्रष्टव्य है । हमें इस कवि का शिल्प-पक्ष अर्थात् प्रस्तुति विलक्षण एवं नवीन प्रतीत हुई है। शब्द-क्रीड़ा नहीं वरन् शब्द-सार्थकता पर बल रहा है, तभी वे कहते हैं :
"चलना, अनुचित चलना/और कुचलना/ये तीन बातें हैं। प्रसंग चल रहा है कुचलने का/कुचली जायेगी माँ माटी ...! फिर भला/क्या कहूँ, क्यों कहूँ/किस विधि कहूँ पदों को?
और, गम्भीर होती है रसना।” (पृ. ११७) कथा-विकास के प्रचलित सभी साधनों को कवि ने अपनाया है। संवाद तथा नाटकीय शैली के कारण इसमें गति आई है तथा पाठक सहज से आत्मसात् कर पाए हैं । अलंकारों की प्रस्तुति में विशेष भूमिका रही है। कवि शब्द की सार्थकता, महत्ता एवं व्यापकता से भलीभाँति परिचित है । भाषा अधिकार विशेष द्रष्टव्य है :