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300 :: मूकमाटी-मीमांसा
माटी की वेदना - व्यथा पहले की बीस-तीस पंक्तियों में इतनी तीव्रता और मार्मिकता से व्यक्त हुई है कि करुणा साकार हो जाती है। माँ-बेटी का वार्तालाप क्षण-क्षण में सरिता की धारा के समान अचानक नया मोड़ लेता जाता है और दार्शनिक चिन्तन मुखर हो जाता है । प्रत्येक तथ्य तत्त्व दर्शन की उद्भावना में अपनी सार्थकता पाता है, यथा : ''मूकमाटी' की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इस पद्धति से जीवन-दर्शन परिभाषित होता जाता है। दूसरी बात यह कि यह दर्शन आरोपित नहीं लगता, अपने प्रसंग और परिवेश से उद्घाटित होता है " ( प्रस्तवन, पृ. VI ) । जिन बिन्दुओं
ओर श्री जैन संकेत करते हैं तथा उनका यथासम्भव समाधान प्रस्तुत करते हैं, उनसे हमारी पूर्ण सहमति है । पर पाठकीय संवेदना को इन्होंने अपने रूप में मान लिया है। सचमुच यह महाकाव्य सर्वथा नवीन विषय एवं प्रस्तुति पर आधारित है। इसके आधार पर महाकाव्य के नए मानदण्ड स्थापित होंगे, ऐसा हमारा विश्वास है । इसकी समझ तथा सही पहचान के लिए दार्शनिक अवधारणाओं का बोध अपेक्षित है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:
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इस प्रकार के अनेक सन्दर्भ - पक्ष इसे दार्शनिक अथवा व्याख्या काव्य की कोटि में ले जाते हैं तथा पाठकीय संवेदना एवं पैठ की विशिष्टता की माँग करते हैं । यहाँ हम कुछ ऐसे उदाहरण भी देना चाहते हैं जो पाठकीय दृष्टि से उल्लेख्य हैं । ऐसे संकेत - सन्दर्भ उल्लेख से लोक-मानस भली-भाँति परिचित है, यथा :
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" व्याधि से इतनी भीति नहीं इसे / जितनी आधि से है और / आधि से इतनी भीति नहीं इसे / जितनी उपाधि से । इसे उपधि की आवश्यकता है/ उपाधि की नहीं, माँ ! इसे समधी समाधि मिले, बस ! / अवधि - प्रमादी नहीं । उपधि यानी / उपकरण - उपकारक है ना ! उपाधि यानी / परिग्रह - अपकारक है ना !" (पृ. ८६)
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"लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन / रावण हो या सीता
राम ही क्यों न हों / दण्डित करेगा ही !” (पृ. २१७ )
" जिस भाँति / लक्ष्मण की मूर्च्छा टूटी
अनंग-सरा की मंजुल अंजुलि के / जल - सिंचन से ।” (पृ. ४६७)
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" रावण ने सीता का हरण किया था / तब सीता ने कहा था । " (पृ. ४६८)
" हनूमान अपने सर पर / हिमालय ले उड़ रहा हो !” (पृ. २५१)
कुछ दार्शनिक व्याख्या - स्थलों के अतिरिक्त सम्पूर्ण काव्य सहज एवं बोधगम्य है। गहन से गहन अनुभव
को
कवि ने अत्यन्त सरल रूप में प्रस्तुति प्रदान की है, यथा :
“ अन्याय मार्ग का अनुसरण करने वाले / रावण जैसे शत्रुओं पर, रणांगण में कूदकर / राम जैसे / श्रम-शीलों का हाथ उठाना ही कलियुग में सत्-युग ला सकता है।” (पृ. ३६२)
“ पुरुष का प्रकृति में रमना ही / मोक्ष है, सार है ।