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मूकमाटी-म
(१५) ज्योतिष विज्ञान के अन्तर्गत जैनों की परम्परागत मान्यताओं का उल्लेख किया गया है। सूर्य पृथ्वी ग्रह से पास है और चन्द्रमा दूर है। राहु सूर्य को ग्रसता है ।
(१६) मन्त्र-तन्त्र विज्ञान के अन्तर्गत यह बताया गया है कि अनेक मणियाँ और धातुएँ उपचार में फलवती पाई गई हैं। मन्त्रों से कार्यों में निर्बाधता आती है। विद्या बल से देवताओं का आह्वान कर इच्छित कार्य कराए जा सकते हैं । इन सभी के लिए मन की पवित्रता और साधना की श्रेष्ठता आवश्यक है । आजकल इस प्रक्रिया को मनोवैज्ञानिकतः प्रभावी ही माना जाता है।
'मूकमाटी' के कथानक की प्रतीकात्मकता
'मूकमाटी' का कथानक मानव जीवन के लिए महान् प्रेरणादायी है। 'मूकमाटी' संसारी कर्मबद्ध जीवात्मा का प्रतीक है । उसे शाश्वत सुख के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए घट निर्माण की प्रक्रिया के समान अनेक चरणों से पार होना पड़ेगा। इसीलिए महाकवि ने पराजित आतंकी दल को सुझाया है कि इस मार्ग पर विश्वासपूर्वक अग्रसर होने के लिए साधु बन कर, आगम पर श्रद्धा रखकर स्वयं अनुभूति करनी होगी। संक्षेप में, 'मूकमाटी' का कवि जन-जन को सच्चा साधु बनने की प्रेरणा दे रहा है । यह पतित के पावन बनने की प्रक्रिया है । कर्मबद्ध जीवात्मा गुरु के उपदेश से भक्ति और आत्मसमर्पण के जल में डुबकी लगाता है। इससे उसमें दो प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं - (१) उपसर्ग सहने की और (२) परीषह सहने की । परीषह स्वयंकृत होते हैं और उपसर्ग परकृत होते हैं । इनसे प्राणी में मिट्टी के लोदे के समान मृदुता, क्षमा भाव, व्रतपालन आदि के गुण आते हैं। ये ही साधु जीवन की ओर ले जाते हैं। इस मार्ग में मोह कर्म के उदय से कषायों के अनेक प्रकार के संवेगों का उपसर्ग आता है जो कथानक में सागर, बदली, बादल, राहु, ओलावृष्टि आदि के रूप में वर्णित है। इनमें अनेक प्राकृतिक उपसर्ग होते हैं और अनेक आधिदैविक भी हो सकते हैं। इन उपसर्गों को सहने में सूर्य, इन्द्र, पवन एवं भू-कण आदि अनेक उपकारी, धार्मिक तत्त्व सहायक होते हैं। प्रतिकूलताओं में खरा उतरने पर ही जीवन पावन बनता है। पर यह पावनता का प्रथम चरण है। पावनता की पराकाष्ठा तो तब उत्पन्न होती है जब वह कुम्भ के अग्निपाक के समान बाह्य और अन्तरंग तपश्चर्या का आश्रय ले । इस समय भी अनेक बाधाएँ आती हैं । अहंभाव के कारण अनेक प्रतिद्वन्द्वी उसे भंग करना चाहते हैं । पर तप और ध्यान में इतनी क्षमता होती है कि प्राणी अहंभाव का विसर्जन कर प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त कर साधुता के शिखर पर जा बैठता है। इस साधुता का परिज्ञान प्राणी के कार्यों और उद्देश्यों से होता है । इन कार्यों के सम्पादन में भी बाहरी और भीतरी शत्रुओं ( आवेग, मनोभाव, मोह, कषाय आदि) का सामना करना पड़ता है जो कथानक में स्वर्णकलश, आतंकी दल आदि के रूप में व्यक्त किए गए हैं । इन मनोभावों की तीव्रता, प्रतिशोध की भावना की तीक्ष्णता और कुटिलता स्पष्ट है। पर उन पर विजय पाना भक्ति, आस्था, सहकारी कारण एवं स्वयं की शक्ति से ही सम्भव है । यह कथानक 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' का अनुपम उदाहरण है । पात्र दान, अतिथि सत्कार, दया और करुणा के समान पवित्र उद्देश्य ही पुण्यार्जन कराते हैं। यह ही साधुता प्रतीक है । 'मूकमाटी' के लक्ष्यों के उक्त विवरण से हमें महाकाव्य के प्रतीकवाद की निम्न रूपरेखा प्रतीत होती है: जीवात्मा, संसारी जीव, कर्मबद्ध जीव
(१)
मूकमाटी
(२)
जीवन निर्माता, भक्त श्रावक
(३)
भक्ति, आस्था, आत्मसमर्पण सहयोगी जीवात्मा
(४)
(५)
(६)
कुम्भकार
पानी
मछली
माटी का छानना, रौंदना आदि
माटी के लोदे का चक्र पर
बाह्य तपों/व्रतों द्वारा जीवात्मा का शुभ परिणमन
साधु जीवन का प्रथम चरण