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'मूकमाटी' : एक उदात्त कृति
पं. अक्षय चन्द्र शर्मा
'मूकमाटी' निःसन्देह एक उदात्त कृति है, चाहे वह परम्परायुक्त भारतीय एवं पाश्चात्य महाकाव्य के लक्षणों से संवलित न हो। आचार्य विद्यासागरजी मूलत: धर्मचेता एक मनीषी हैं जिन्हें कवित्व सहज ही अनायास प्राप्त है । काव्य का मूल कथानक छोटा-सा है. - मृत्तिका का कुम्भकार के द्वारा घट का निर्माण, घट का यानी एक मंगल घट का निर्माण ! लगता है - जैसे मृण्मय शरीर में चिन्मयी अमृत प्राप्ति की साधना, जीवन की कृतार्थता एवं जीवन की धन्यता !
'मूकमाटी' नाम से यह ध्वनित है कि इस का नायक प्रतीक धर्मा है। माटी मूक है - पर, कवि की कृती कल्पना से सभी मुखर हैं- धरती, माटी, गदहा, सागर, सूरज, बदली, व्यापक प्रकृति का परिवेश, सृष्टि का कणकण, धर्म की परिभाषाएँ, चतुर्दिक् व्याप्त चिन्तन की शुभ्र आलोक रश्मियाँ, युग के विशिष्ट विसंवादी स्वर, सभी रस और उन रसों के ऊपर प्रशान्त शान्त रस, एक रागहीन विराग का रंग और त्याग, तप का स्वर्णिम परिधान ! जैन दर्शन की विशिष्ट पारिभाषिक शब्दावली - उत्पाद-व्यय-धौव्य सिद्धान्त, अनेकान्त, लेश्या प्रभृति मधुर बन कर रचना में रच-पच गए हैं ।
रचना विविध प्रसंगों को लेकर चली है। जिस प्रसंग को कवि ने लिया है, उसे एक स्वतन्त्र पूर्ण गीति का रूप दे दिया है। विभक्त रूप में इसमें शतश: गीत हैं - अपने में पूर्ण - पर, काव्य की शाखा में झूलते - झूमते सुरभित सुमन ! पुष्पों का एक रसमय स्तवक, जो किसी विशाल चतुर्दिक् व्याप्त वट वृक्ष में उग आया है !
यह उदात्त काव्य उस वट वृक्ष की तरह है जिसकी शाखाएँ गगन की ओर ऊपर उठी हैं, पर उस के प्ररोह नीचे की ओर, धरती की ओर भी हैं - पर, जो धरती में मूल रूप में प्रवेश कर भी अपना रस ऊर्ध्वगामी बना रहे हैं । 'मूकमाटी' मूक नहीं, अनन्त के गीत गाती हुई ऊर्ध्व चेतना की अनाहत वाणी है - मौन भी और • मुखर : भी।
ऐसा लगता है कि हिन्दी की मधुर रसमयी भाषा नए अंदाज़ से संगीतमयी, नृत्यमयी होकर पत्रों पर उभरी है। जिस प्रकार मांगलिक पत्र कुंकुमित होते हैं, उसी प्रकार यह कृति है जो मंगलमयी भावना की चारु अँगुलियों से चर्चित है, अक्षतों से उजली, चन्दन से सुवासित और सूक्तियों से सुरभित भी ।
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