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'मूकमाटी' : आगमयुग की अनुयोगविहीन परम्परा का नवलेखन
डॉ. डी. के. जैन
कर्नाटक के मूल निवासी पूर्व विद्याधर नामधारी और वर्तमान आचार्य श्री विद्यासागरजी दिगम्बर जैन परम्परा के इस सदी के लब्धप्रतिष्ठ साधु हैं, जो अपनी तपश्चर्या, साधुचर्या परिपालन, मनोहारी प्रवचन एवं अध्यात्म विद्या के लेखन के क्षेत्र में अद्वितीय यश अर्जित कर रहे हैं। यही कारण है कि इनका मुनिसंघ बहुसंख्य हो गया है और उनके भक्त असंख्य हो गए हैं। अपनी व्यस्त साधुचर्या, संघचर्या एवं समाजचर्या के बावजूद उन्होंने अल्पकाल में ही काव्य, पद्यानुवाद, शतक, स्तुति एवं प्रवचनों के माध्यम से शताधिक कृतियाँ सर्जित की हैं। इससे उनकी अध्यात्मपरक साहित्यिक रुचि का आभास होता है । अनेक लघु ग्रन्थों के प्रणयन के बाद उन्होंने 'मूकमाटी' जैसा प्रौढ़ एवं प्रांजल रूपक महाकाव्य सर्जित किया, इससे उसकी कोटि की उत्तमता का अनुमान सहज ही लग सकता है। इस काव्य को इतनी लोकप्रियता मिली कि इस पर अनेक छात्रों ने शोध उपाधि प्राप्त की हैं और अनेक समालोचकों ने हिन्दी, बंगला, मराठी, कन्नड़ और अंग्रेजी में काव्यशास्त्रीय, दर्शनशास्त्रीय एवं अध्यात्मशास्त्रीय आधार पर इसकी प्रशंसनीय समीक्षाएँ लिखी हैं ।
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'मूकमाटी' : अद्भुत साहित्यिक रूपक महाकाव्य
'मूकमाटी' के प्रारम्भिक अध्ययन पर साहित्यिकजन इसके काव्यत्व की कोटि के विषय में सन्देह कर सकते हैं। पर प्रो. शीलचन्द्र जैन ने 'मूकमाटी : काव्यशास्त्रीय निकष', डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ने 'मूकमाटी : एक दार्शनिक महाकृति' एवं 'मूकमाटी : चेतना के स्वर' तथा जयकिशन दास सादानी ने 'Acharya Vidyasagar's : Mookmati (Mute-Mud)' नामक अपनी कृतियों में पूर्व और पश्चिम के समालोचकों की परिभाषाओं के आधार पर इसे प्रबन्ध काव्य के अन्तर्गत रूपक महाकाव्य माना है । अध्यात्मपरक जन-मंगल-देशक होने से इसे आध्यात्मिक महाकाव्य भी माना जा सकता है। इसमें समालोचकों द्वारा मान्य महाकाव्य के सभी लक्षण प्रस्फुटित होते हैं : १. सर्गबद्धता : इसमें चार सर्ग हैं, पर वे इतने विस्तृत हैं कि इन्हें आठ से भी अधिक माना जा सकता है ।
२. कथानक : इसका कथानक ख्याति प्राप्त है, सु- संगठित है एवं व्यापक है । इसका आधार कवि कल्पना है, जो व्यापक आध्यात्मिक उद्देश्यों को लोकप्रिय रूपक के माध्यम से प्रस्तुत करती है ।
३. उदात्त चरित्र : इसके प्रमुख नायक और नायिका क्रमश: शिल्पी, कुम्भकार और मूकमाटी हैं। माटी जीवात्मा का प्रतीक है । कुम्भकार गुरु एवं नायक का प्रतीक है। अर्हन्त देव तो इसके परम नायक हैं। ये दोनों ही उदात्त चरित्र के हैं। इनमें नायिका अनेक सहयोगियों के माध्यम से मंगलमय कलश का रूप ग्रहण कर जनकल्याणी रूप को प्राप्त करती है। इसके गौण पात्रों में सेवक, सेठ परिवार, चिकित्सक दल, आतंकवादी दल, स्वर्ण कलश, स्फटिक झारी, गदहा आदि हैं जो अपने विभिन्न रूपों से कथानक में रसत्व, गतिशीलता एवं शिक्षा प्रदान करते हैं ।
४. रचनाशिल्प : इसके दो रूप होते हैं - (१) भावात्मक या रसात्मक और (२) कलात्मक वर्णन, छन्द, अलंकार आदि । ‘मूकमाटी' का प्रधान रस शान्त है जो अध्यात्म का प्रतीक है। उपयुक्त अवसरों पर अन्य रसों का भी वर्णन है । यह काव्य वात्सल्य रस का भी सागर है । इसकी भावात्मकता उच्च कोटि की है ।
मुख्यत: यह मुक्तक छन्दों का काव्य है । बीच-बीच में इसमें छन्दबद्धता भी है। इसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों की अनुपम छटा दिखती है । अनुप्रास तो पग-पग पर रोचकता देता है। फिर भी, इसमें उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, रूपक, अन्योक्ति, अनुप्रास, लाटानुप्रास, प्रश्न, श्लेष तथा सन्देह अलंकार प्रमुख हैं। इसमें अभिधा,