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260 :: मूकमाटी-मीमांसा और अन्त में 'मूकमाटी' के सन्दर्भ में कवि की उक्तियों को ही दुहराना चाहता हूँ :
___ "मैं यथाकार बनना चाहता हूँ/व्यथाकार नहीं।
और/मैं तथाकार बनना चाहता हूँ/कथाकार नहीं। .. इस लेखनी की भी यही भावना है-/कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक/जागृत"जीवित "अजित !" (पृ.२४५)
0 "ग़म से यदि भीति हो/तो सुनो !/श्रम से प्रीति करो।” (पृ.३५५) अन्त में, मैं यही कहूँगा – “को बड़ छोट, कहत अपराध"-काव्य और कवि में विभेद कर पाना मेरे जैसे अल्पबुद्धि के सामर्थ्य के बाहर है । 'मूकमाटी' मात्र कवि-कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का स्वर्गीय भावपूर्ण संगीत है । ऐसा संगीत, जिसमें अन्धकार का आलोक से, असत् का सत् से, जड़ का चेतन से और बाह्य जगत् का अन्तर्जगत् से सम्बन्ध स्थापित है और इस सम्बन्ध स्थापन का माध्यम है सन्त की अपनी साधना । वस्तुत: आचार्य विद्यासागर स्वयमेव साधना के जीवन्त प्रतिरूप हैं और साधना वह है जो आत्म-विशुद्धि की मंज़िलों पर सावधानी से पग धरती हुई लोकमंगल को साधती है । तपस्या से अर्जित जीवन-दर्शन को स्वानुभूति में रचा-पचा कर निर्मल वाणी और सार्थक सम्प्रेषण के माध्यम से सबके हृदय में गुंजरित कर देना इस काव्य और स्वयं सन्तप्रवर का लक्ष्य है । फलस्वरूप काव्यानुभूति की अन्तरंग लय समन्वित कर आचार्यश्री ने अपनी अनुभूति, जो सब जन की अनुभूति बन पड़ी है, को काव्य का बाना पहनाया है।
पृष्ठ 3९५-३९० कला शब्दस्वयं कर एक ही मत, नस--
कहरघ कि
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