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282 :: मूकमाटी-मीमांसा प्रक्षालन? अन्त में, उसकी पवित्रात्मा की करुण पुकार सुन ली जाती है :
"मण्डली-समेत राज-मुख से/तुरन्त निकलती है ध्वनि
'सत्य-धर्म की जय हो !/सत्य-धर्म की जय हो' !!" (पृ. २१६) शिल्पी कुम्भकार विचार मन्थन कर स्व-विवेक से निर्णय लेता है कि वास्तव में मुक्ता राशि पर राजा का ही अधिकार है, अत: वह उन्हें समर्पित कर देता है । उसका यही त्याग और समर्पण सम्यक् दर्शन के समतुल्य है, जिसकी प्रशंसा करने में सन्त कवि की लेखनी भी नहीं सकुचाती है।
अपनी शब्द साधना के माध्यम से आन्तरिक अर्थ प्रकट करती हुई सन्त कवि की लेखनी समाज निर्माण में नारी की अहं भूमिका की महत्ता का भी प्रतिपादन करती है। वे नारी के शान्त-संयत रूप की, शालीनता की सराहना करते हैं और उसके प्रति आदर और आस्था के भाव प्रकट करते हैं। विभिन्न रूपा नारी, करुणा की कारिका रूप में 'नारी' है तो धर्म, अर्थ पुरुषार्थ में पुरुष को कुशल-संयत बनाने वाली 'स्त्री' है; जीवन में मंगलमय महोत्सव लाने वाली महिला' है तो तिमिर तामसता मिटाकर ज्ञान-ज्योति जलाने वाली 'अबला' है; लौकिक सर्व मंगलकारिणी 'कुमारी' है तो सुख-सुविधाओं का स्रोत, भावधर्म, सारभूता ‘सुता' है; उभय कुल मंगलवर्धिनी, उभय लोक सुख-सर्जिनी, स्व-परहित सम्पादिका 'दुहिता' है तो सबकी आधारशिला, सबकी जननी, मातृतत्त्व से युक्त 'माता' की महिमा का गुणगान कौन कर सकता है ?
कथा प्रवाह के तारतम्य में धरती की गम्भीरता और सहनशीलता की कीर्ति को देख-सुनकर सागर को भी क्षोभ और ईर्ष्या होती है। धरती सब रत्नों की खान है तो सागर क्षारयुक्त लवण का भण्डार । दोनों एक दूसरे की विपरीत प्रकृति और स्वभाव के हैं। सागर के इस क्षोभ का प्रतिपक्षी बड़वानल बनता है । तब सागर उस पर व्यंग्य करता हुआ कहता है:
"कथनी और करनी में बहुत अन्तर है,/जो कहता है वह करता नहीं
और/जो करता है वह कहता नहीं,/यूँ ठहाका लेता हुआ सागर व्यंग कसता है पुन:/ऊपर से सूरज जल रहा है/नीचे से तुम उबल रहे हो! और/बीच में रहकर भी यह सागर/कब जला, कब उबला?
इसका शीतल-शील'' यह/कब बदला?" (पृ. २२५-२२६) इसी बीच सागर से तीन घन बादलों की उमड़न होती है, जो कृष्ण, नील एवं कापोत लेश्याओं के प्रतीक हैं। सागर तब सविता-शत्रु राहु का आह्वान करता है और राहु द्वारा सूर्य को ग्रस्त करने से सूर्यग्रहण होता है । इन्द्र द्वारा मेघों पर वज्र-प्रहार होता है तब ओलों की वर्षा और प्रलंयकारी दृश्य उपस्थित हो जाता है :
"ऊपर अणु की शक्ति काम कर रही है तो इधर "नीचे/मनु की शक्ति विद्यमान ! ...एक मारक है/एक तारक; एक विज्ञान है/जिसकी आजीविका तर्कणा है;
एक आस्था है/जिसे आजीविका की चिन्ता नहीं।" (पृ. २४९) जब साधक शिल्पी उपास्य की उपासना में डूबकर साधनारत होता है, तब उसे अपने लक्ष्य-भेदन की दृष्टि