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मूकमाटी-मीमांसा :: 283
प्राप्त होती है और वह उस ओर निरन्तर आगे बढ़ता ही जाता है :
"जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर
वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए।" (पृ. २६७) चतुर्थ और अन्तिम खण्ड का फलक इतना विस्तृत और अनेक कथा-प्रसंगों को अपने में समाए हुए है कि उसका सार-संक्षेप देना भी कठिन है । इस खण्ड का प्रारम्भ शिल्पी कुम्भकार द्वारा सृजित घट को एक रूपाकार देकर अवे में तपाने की तैयारी करने और उसे अग्नि परीक्षा में खरा उतरने से होता है :
"इधर धरती का दिल/दहल उठा, हिल उठा है, अधर धरती के कैंप उठे हैं/घृति नाम की वस्तु वह
दिखती नहीं कहीं भी।" (पृ. २६९) अवे के निचले भाग में बबूल की लकड़ियाँ बिछाई जाती हैं और बीच में कुम्भों को क्रमबद्धतानुसार साजसम्हाल कर रखा जाता है, जिन्हें बबूल, नीम, देवदारु की लकड़ियों से ढंक दिया जाता है और अवे में अग्नि प्रज्वलित कर दी जाती है । अग्नि की लपटों से लकड़ी जलती है, सुलगती है, लपट निकलती है और बुझती है । लकड़ियों के जलने, सुलगने की अन्तर्व्यथा अकथनीय है, अवर्णनीय है। शिल्पी कुम्भकार उन्हें बार-बार प्रज्वलित करता है। वह धूम्र देकर बुझती हैं, जलती हैं। एक ओर अपक्व कुम्भ अपनी अन्तर्व्यथा कहता है तो दूसरी ओर बबूल की लकड़ियों की व्यथा-कथा । यहाँ अन्तर्दर्शन की तरह अन्त:स्रोता सरिता की कथा सदृश निरन्तर प्रवहमान दिखाई देती है । यहाँ करुणा को भी करुणा आ जाती है, यथा :
"पूरा-का-पूरा अवा धूम से भर उठा/तीव्र गति से धूम घूम रहा है अवा में प्रलयकालीन चक्रवात-सम/और कुछ नहीं,/मात्र धूम 'धूम'धूम ! ...कुम्भ के मुख में, उदर में/आँखों में, कानों में । और नाक के छेदों में,/धूम ही धूम घुट रहा है आँखों से अश्रु नहीं, असु/यानी, प्राण निकलने को हैं; परन्तु/बाहर से भीतर घुसने वाला धूम
प्राणों को बाहर निकलने नहीं देता।" (पृ. २७८-२७९) सभी को तो इस दाहक अग्नि-परीक्षा के मध्य से गुज़रना पड़ता है :
"लो, जलती अग्नि कहने लगी :/मैं इस बात को मानती हूँ कि अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक/किसी को भी मुक्ति मिली नहीं,
न ही भविष्य में मिलेगी।" (पृ. २७५) तब अपक्व कुम्भ अग्नि से कहता है :
"मैं निर्दोष नहीं हूँ/दोषों का कोष बना हुआ हूँ