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होनी भी चाहिए । / कोई-कोई श्वान / पागल भी होते हैं / और वे जिन्हें काटते हैं वे भी पागल हो श्वान - सम/भौंकते हुए नियम से कुछ ही दिनों में मर जाते हैं, / परन्तु / कभी भी यह नहीं सुना कि सिंह पागल हुआ हो ।” (पृ. १७१)
कछुवा और खरगोश के चित्र भी जीवन में लक्ष्य प्राप्ति के प्रतीक हैं। 'ही' और 'भी' बीजाक्षर रूप में हैं :
"ये दोनों बीजाक्षर हैं, / अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं । 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है / 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।
'ही' पश्चिमी सभ्यता है / 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता । रावण था 'ही' का उपासक / राम के भीतर 'भी' बैठा था ।
यही कारण कि/राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी ।” (पृ. १७२ - १७३)
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मूकमाटी-मीमांसा :: 281
तीसरे खण्ड का प्रारम्भ जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से होता है । मन, वचन और कर्म की निर्मलता से शुभ कर्मों का सम्पादन होता है तथा लोक-कल्याण की कामना से पुण्य उपार्जित होता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया और मत्सर से मन, वाणी अपवित्र होती है और पाप उपजता है । इनके शमन से आत्मा निर्मल और पवित्र होती है । सन्त कवि की वाणी है।
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'जल को जड़त्व से मुक्त कर / मुक्ता-फल बनाना,
पतन के गर्त से निकाल कर / उत्तुंग - उत्थान पर धरना,
धृति-धारिणी धरा का ध्येय है। / यही दया-धर्म है /यही जिया-कर्म है।” (पृ.१९३)
सन्तों का यही ध्येय होता है । पुण्य कर्म के सम्पादन में माटी की विकास कथा से उपजी श्रेयस्कर उपलब्धि के चित्रण में शिल्पी कुम्भकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । शिल्पी कुम्भकार के प्रांगण में अपक्व कुम्भों पर मुक्ताओं का वर्षण होता है और धरती पर मेघ से मेघ - मुक्ता का अवतार होता है । राजा को भी यह समाचार प्राप्त होता है । इन मोतियों की वर्षा का समाचार सुनकर राजा की मण्डली मुक्ता राशि को बोरियों में भरती है, ज्यों ही मण्डली मुक्ताओं भरती है, त्यों ही गगन में गुरु- गम्भीर गर्जना होती है :
'अनर्थ अनर्थ क्या कर रहे आप बाहुबल मिला है तुम्हें / करो पुरुषार्थ सही
पुरुष की पहचान करो सही । " (पृ. २११ )
अनर्थ !/ पाप पाप पाप ! - ?/ परिश्रम करो / पसीना बहाओ
इसी बीच कुम्भकार का आना होता है और उसकी आँखों में विस्मय, विषाद और विरति की तीन रेखाएँ खिंच जाती हैं। विशाल जनसमूह को देखकर उसे विस्मय हुआ तो राजा की मण्डली का मूर्च्छित होने पर राजा को अनुभूत हुआ कि किसी मन्त्र शक्ति द्वारा उसे कीलित किया गया जो विषाद का कारण लगा तथा स्त्री और श्री के चंगुल में फँसे रहना उसकी विरति का कारण है । इस दुर्घटना से शिल्पी कुम्भकार दु:खी होता है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि इस मंगलमय प्रांगण में यह दंगल क्यों हो रहा है ? वह सोचता है कि क्या यह उसके पुण्य का परिपाक है या पाप का