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मूकमाटी-मीमांसा :: 277 भारतीय चिन्तनधारा की इस मूल भावना के दर्शन में सन्त आचार्य की गहरी पैठ है, तब ही तो उन्होंने 'मूकमाटी' जैसे तुच्छ समझे जाने वाले विषय में भव्यता एवं दिव्यता के दर्शन कराए। यही श्रमण संस्कृति के सम्पोषक जैन दर्शन की आधारशिला है | सम्पूर्ण जैन दर्शन अपने मूलभूत सिद्धान्त - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र पर आधारित है । इसके मुख्य अवयव अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, आत्मवाद और कर्मवाद हैं। यही कारण है कि इन्द्रियों, अहम् और आत्मा पर विजय पाने जिन - महावीर संसार में विरले ही हुए हैं। संसार के बाह्य युद्ध पर विजय प्राप्त करने की अपेक्षा आन्तरिक जीवन के द्वन्द्व अथवा अन्तर्द्वन्द्व को जिस वीरता से इन तीर्थंकरों या महावीरों ने जीता है, वही दर्शन, वही सिद्धान्त जैन दर्शन, श्रमण संस्कृति की आधारशिला बना । तेईस तीर्थंकरों की भाँति चौबीसवें तीर्थंकर महावीर ने भी संसार के सामने जिस दर्शन को व्यावहारिक रूप प्रदान किया, वही आज जैन दर्शन के रूप में जाना और माना गया है। यही कारण है कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र जैन संस्कृति के मौलिक तत्त्व हैं । जैन आगमों ने जीवन की कलुषता को मिटाने के लिए इन्हीं पर विशेष बल दिया है। 'जियो और जीने दो' के सिद्धान्त के आधार पर हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। जैन दर्शन संसार के प्रमुख दर्शनों में से एक है, पूर्णत: आत्मा की शुद्धि पर आधारित है और अन्य दर्शनों की अपेक्षा अधिक गहन एवं सूक्ष्म भी है।
जिस प्रकार (कुछ दर्शन) सृष्टि सृजना का दायित्व ब्रह्मा का मानते हैं, उसी प्रकार काव्य सृजना का कर्तव्य कवि का है । कुम्भकार अपने कर्तृत्व- सृजन का ब्रह्मा होता है। उसकी सृजना अपनी निजी, मौलिक एवं अनूठी होती है । कुम्भकार शिल्पी अपने सृजन संसार का कर्त्ता, धर्त्ता एवं स्वामी होता है। कुम्भकार शिल्पी मूकमाटी की ध्रुवता एवं भव्य सत्ता को पहचानकर, कूट-छानकर, वर्ण संकर कंकर को हटाकर उसे निर्मल मृदुलता का वर्ण लाभ देता है । उसका घट-सृजन का श्रम वर्णनातीत है। रंग रोगन करना, उसकी कलाकारी प्रवृत्ति, और मृदुलता तथा तृप्ति हेतु सहारा देना उसकी गुरुता है। फिर चाक पर चढ़ाकर, अवा में तपाकर उसे ऐसी मंजिल तक पहुँचाना, जहाँ वह पूजा का मंगल घट बनकर जीवन की सार्थकता प्राप्त करता है । यही उसके जीवन का लक्ष्य है ।
भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार महाकाव्यों के जिन लक्षणों या विशेषताओं की विवेचना की जाती है, चाहे वे इस महाकाव्य के सन्दर्भ में कसौटी पर खरे उतरते हों या नहीं, परन्तु इसमें दो मत नहीं है कि इसे खण्डकाव्य या मात्र काव्य कहना, इसके प्रति घोर अन्याय ही होगा । कारण यह है कि यह काव्य अथवा खण्डकाव्य के उस कलेवर एवं विषय वस्तु की व्यापकता से बहुत आगे का है । अत: इसकी सम्यक् समीक्षा इस बात को स्पष्टत: प्रमाणित कर देती है कि 'मूकमाटी' आधुनिक युग का एक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है। चूँकि महाकाव्य की परम्परागत परिभाषा के चौखटे में उसे
कड़ना सम्भव नहीं है, फिर भी, यदि विचार करें तो चार खण्डों में विभाजित यह काव्य लगभग ५०० पृष्ठों में समाहित है एवं परिमाण की दृष्टि से महाकाव्य की सीमाओं को छूता है। युगानुसार एवं युगानुकूल परिभाषाएँ भी अपना परिवेश बदलती हैं। 'मूकमाटी' अपने युग की एक ऐसी ही सृजना है जो महाकाव्य के सभी लक्षणों एवं विशेषताओं को अपनी सीमा में समाहित किए हुए है।
'मूकमाटी' आधुनिक भारतीय साहित्य परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है, जिसे सन्त कवि ने चार विभिन्न खण्डों में विभक्त किया है। प्रथम खण्ड का पहला पृष्ठ खोलते ही महाकाव्य के अनुरूप प्राकृतिक परिदृश्य मुखर हो उठता है । 'सीमातीत शून्य की नीलिमा' को सूर्योदय एक नया आकार प्रदान करता है और सारा संसार दृश्यमान हो उठता है, तब माँ 'धरती' और बेटी 'माटी' का परिसंवाद काव्यात्मक रूप में विगत युगों की दास्तान सुनाते हुए प्रारम्भ हो जाता है। बेटी 'माटी' अपनी अन्तर्वेदना इन शब्दों में व्यक्त करती हुई कह रही है :