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भारतीय संस्कृति का पर्याय : 'मूकमाटी'
डॉ. दामोदर पाण्डेय बन्धुवर का अतिस्नेह पत्र प्राप्त हुआ कि मैं परमश्रद्धेय आचार्य श्री विद्यासागर द्वारा विरचित महाकाव्य 'मूकमाटी'का समकालीन काव्यों/महाकाव्यों के परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक अनुशीलन अथवा इसके किसी विशिष्ट प्रकरण पर समीक्षा लेख प्रस्तुत करूँ । पत्र प्राप्ति के पश्चात् 'महाकाव्य' का आद्योपान्त अध्ययन करने के उपरान्त मन में बार-बार 'कालिदास' की यह उक्ति स्मरण हो आ रही है, जो उन्होंने 'रघुवंश महाकाव्य' लिखने के पूर्व व्यक्त की थी:
"क्व सूर्यप्रभवो वंश: क्व चाल्पविषया मतिः।।
तितीपुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥” (१/२) किन्तु यहाँ तो बहुत ही दयनीय स्थिति है । न तो मेरे पास वाणी है और न तो सबल अभिव्यक्ति, हाँ, यदि कुछ है तो वह 'श्रद्धा', और इसी 'श्रद्धा' के बल पर कुछ प्रस्तुत करने का साहस बटोर रहा हूँ। जहाँ तक 'मूकमाटी' के तुलनात्मक अनुशीलन की बात है तो इसके लिए आचार्य श्री विद्यासागर की यह पंक्ति देखें :
"विकसित या विकास-शील/जीवन भी क्यों न हो, कितने भी उज्ज्वल-गुण क्यों न हों,/पर से स्व की तुलना करना पराभव का कारण है/दीनता का प्रतीक भी।
...फिर,/अतुल की तुलना क्यों ?" (पृ. ३३९-३४०) इसे पढ़ने के पश्चात् मन में बार-बार यह प्रश्न होता था कि 'अतुल की तुलना क्यों ? क्योंकि मेरे लिए तो यह अतुलनीय महाकाव्य है । यह चार खण्डों में विभाजित है, जिसके प्रत्येक खण्ड, स्वयं एक खण्ड काव्य की प्रतीति कराते हैं, उसकी तुलना महाकाव्य से क्यों ? इसीलिए 'इसके किसी विशिष्ट प्रकरण पर लिखना' ही समीचीन एवं सार्थक प्रतीत हुआ और अनायास शीर्षक 'भारतीय संस्कृति का पर्याय : मूकमाटी' लिख गया। इसके पूर्व अनेक शीर्षक विचार-सरणि पर अंकित हुए- 'भारतीय दर्शनों की सरल अभिव्यक्ति : मूकमाटी', 'सामयिक बोध की सहज प्रतीति : मूकमाटी', अन-आरोपित जीवन दर्शन : मूकमाटी', 'मानवीय मनोभावों का महाकाव्य : मूकमाटी', 'मानवीकरण द्वारा मानवी मनोभावों की सहज अभिव्यक्ति : मूकमाटी', 'दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत : मूकमाटी'-परन्तु इन समस्त शीर्षकों में से कोई भी शीर्षक 'मूकमाटी' के विराट् स्वरूप को व्याख्यायित करने में सक्षम प्रतीत नहीं हुआ। भारतीय संस्कृति के विविध आयामों की इन्द्रधनुषी छटा को विकीर्ण करने वाली इस महान् कृति के लिए 'भारतीय संस्कृति का पर्याय' शीर्षक सुखकर है, क्योंकि :
"लम्बी, गगन चूमती व्याख्या से/मूल का मूल्य कम होता है सही मूल्यांकन गुम होता है ।/मात्रानुकूल भले ही दुग्ध में जल मिला लो/दुग्ध का माधुर्य कम होता है अवश्य ! जल का चातुर्य जम जाता है रसना पर !" (पृ. १०९)
और