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मूकमाटी-मीमांसा :: 265
आतंक का नाम सुन नहीं सकते, / यह जीवन भी कृत संकल्पित है कि उसका रहे या इसका / यहाँ अस्तित्व एक का रहेगा ।" (पृ. ४४१)
भारतीय संस्कृति में बुद्धि का भ्रमित होना ही अनेक अनर्थों की जड़ माना गया है। यह बुद्धि-भ्रम संगति से ही दूर हो सकती है, क्योंकि 'बिन सत्संग विवेक न होई' सत्संगति का ही प्रभाव है कि जल की एक बूँद नीम की जड़ में पहुँचकर कटुता में ढल जाती है, वही बूंद सागर में मिलकर लवण - युक्त हो जाती है, विषधर के मुँह में विष और स्वाति-काल में वही बूँद सागर की सीपी में पड़कर मोती रूप माणिक्य - कान्ति से झिलमिलाने लगती है । स्वभाव और विभाव में यही अन्तर है और यही सन्तों के सन्त विद्यासागर महाराज का कथन है।
जीवन में प्राय: विरोधाभासों को भी लेकर जीना पड़ता है, भारतीय संस्कृति इसका अपवाद नहीं है। इसी प्रकार 'मूक माटी' में भी कई विरोधाभास देखने को मिले । पृष्ठ २९५ में स्वप्न को बहुविध उलझनों का पर्याय एवं जागृति के सूत्र से छूटने की स्थिति बतलाया गया है। इतना ही नहीं बल्कि स्वप्न में आत्म-साक्षात्कार सम्भव ही नहीं है, इसलिए स्वप्न अतीत से जुड़े होने के कारण वर्तमान में निज-भाव का रक्षण नहीं कर सकता है। ठीक इसके विपरीत पृष्ठ ३०२ में नगर के महासेठ के स्वप्न को सत्य किया गया है । यह विरोधाभास क्यों ? समीक्षक की दृष्टि में तो संस्कृति का ही अविभाज्य अंग है, किन्तु इस पर चर्चा आवश्यक है । 'मूकमाटी' में कवि ने 'माटी' को नायिका रूप प्रदान अनादिकाल से पद-दलित को उठाकर भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता का परिचय तो दिया है, किन्तु वहीं यह कहकर कि
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“नीच बन नहीं सकता उच्च / इस कार्य का सम्पन्न होना सात्त्विक संस्कार पर आधारित है ।" (पृ. ३५७ )
संस्कार यदि जन्मजात होते हैं तो नीच नीच ही रहेगा और यदि उचितानुचित सम्पर्क से सबमें परिवर्तन सम्भव है तो क्या वह संस्कारगत परिवर्तन कहा जाएगा अथवा स्वभावगत ? विचारणीय है ।
समग्रत: हम देखते हैं कि ‘मूकमाटी' भारतीय संस्कृति के समस्त गुणों से गुम्फित है। मैंने इस दृष्टि से देखने का प्रयास किया है, किन्तु बहुत सम्भव है कि इस महासागर से उठने वाली लहरों की बूँदें तो नहीं, उनके कुछ छींटों का संस्पर्शन हो पाया हो । अथवा यूँ कहूँ कि श्रद्धा के भावावेश में प्रवाहित होकर कहीं जूठे बेर ही तो नहीं प्रस्तुत हो गया है । अन्त में 'चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति' की पुनरावृत्ति के साथ :
" पूरा चल कर विश्राम करो !” (पृ. १२९)
सुनो !
" संहार की बात मत करो, / संघर्ष करते जाओ ! हार की बात मत करो, / उत्कर्ष करते जाओ ! / और घातक - घायल डाल पर / रसाल- फल लगता नहीं, / लग भी जाय पकता नहीं, / और / काल पाकर / पक भी जाय तो "
भोक्ता को स्वाद नहीं आयेगा / उस रसाल का !" (पृ.४३२)
पृः २६
जिसका भाल वह बाल नहीं है
वृद्ध है, विशाल है, भाग्य का भण्डार !
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