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236 :: मूकमाटी-मीमांसा
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बहुमूल्य वस्तुओं का भोक्ता ? / तभी तो दरिद्र नारायण-सम स्वर्णादि पात्रों की उपेक्षा कर/ माटी का ही स्वागत किया है।" (पृ. ३६३)
मृत्तिका कुम्भ में भरा पास स्वर्ण की हीनता बताते हुए माटी का महत्त्व प्रतिपादित करता है :
"तुम स्वर्ण हो / उबलते हो झट से / माटी स्वर्ण नहीं है पर/स्वर्ण को उगलती अवश्य, / तुम माटी के उगाल हो ! ... माटी में बोया गया बीज / समुचित अनिल-सलिल पा पोषक तत्त्वों से पुष्ट- पूरित / सहस्र गुणित हो फलता है ।" (पृ. ३६५)
पायस का कथन जारी रहता है।
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“परतन्त्र जीवन की आधार शिला हो तुम, / पूँजीवाद के अभेद्य
दुर्गम किला हो तुम / और / अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला !" (पृ. ३६६ )
स्वर्ण सुख-शान्ति में व्यवधान उत्पन्न करने वाला उपकरण है। वैश्विक स्तर पर आज शोषण और हिंसा का जो नग्न ताण्डव हो रहा है, उसके मूल में स्वर्ण यानी सम्पत्ति-संग्रह की कामना है । भौतिक लिप्सा के अतिरेक ने आज मानव को दुर्दान्त बना दिया है। इसीलिए कवि स्वर्ण को 'परतन्त्र जीवन की आधारशिला' और 'अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला' का मुख्य कारण मानता है । परिग्रहवृत्ति से विजड़ित आज का मानव सम्पत्तिसंग्रह के लिए अनैतिक साधनों के उपयोग से भी परहेज नहीं करता । मनुष्य पर लोभ इतना हावी हो गया है कि लोग दहेज के लिए वधू-हत्या जैसे जघन्य अपराध करने से भी नहीं चूकते, 'लोभी पापी मानव पाणिग्रहण को भी प्राण- ग्रहण का रूप देते हैं" (पृ. ३८६) ।
आतंकवाद पर भी कवि ने दृष्टिपात किया है। अहिंसा को परम धर्म माननेवाला हमारा देश आज आतंकवाद की भीषण ज्वाला में जल रहा है। पंजाब, कश्मीर और असम की भोली-भाली निरपराध जनता आतंकवादियों की हिंसा का शिकार हो रही है। देश के अन्य राज्य भी आतंकवादी गतिविधियों से अछूते नहीं हैं। आतंकवाद की समस्या को अपने ढंग से प्रस्तुत करते हुए कवि ने इसके समाधान का मार्ग भी प्रस्तुत किया है। स्वर्ण कलश के आतंकवादी दल Satara और नाग-नागिनियाँ परास्त कर सेठ के परिवार की रक्षा करते हैं। आतंकवाद का हृदय इतना परिवर्तित
जाता है कि नीराग साधु से वह अक्षय सुख प्राप्ति का मार्ग दिखाने का वचन माँगता है ताकि आश्वस्त होकर वह भी नीराग साधु-जैसी साधना का अपने जीवन में अभिनिवेश कर सके । साधु वचन नहीं देता, क्योंकि अक्षय-सुख आत्मसाधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। वचन के द्वारा आत्मानन्द की अभिप्राप्ति नहीं कराई जा सकती। इसलिए साधु वचन न देकर प्रवचन देता है :
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' बन्धन - रूप तन, / मन और वचन का / आमूल मिट जाना ही / मोक्ष है । इसी की शुद्ध-दशा में / अविनश्वर सुख होता है / जिसे / प्राप्त होने के बाद, यहाँ/ संसार में आना कैसे सम्भव है / तुम ही बताओ !” (पृ. ४८६-४८७)
प्रवचन के बाद सन्त महामौन में डूब जाता है और मूक माटी माहौल को अनिमेष निहारती है।
'मूकमाटी' का शिल्प सौन्दर्य भी आकर्षक है। अनेक आनुषंगिक कथाओं का नियोजन इस कलात्मकता के साथ किया गया है कि काव्य का स्थापत्य कहीं लड़खड़ाता नहीं । अलंकारों के प्रयोग भी सुन्दर बन पड़े हैं । कविता में