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हिन्दी साहित्य का गौरव ग्रन्थ : 'मूकमाटी'
प्रो. शील चन्द्र जैन
कवि अपने युग का प्रतिनिधि होता है। जैसा उसे मानसिक खाद्य मिलता है, वैसी ही उसकी कृति होती है। जिस प्रकार बेतार के तार का ग्राहक आकाश मण्डल में विचरण करती हुईं विद्युत् तरंगों को पकड़ कर उसको भाषित शब्द का आकार देता है, ठीक उसी प्रकार कवि अपने समय के वायुमण्डल में घूमते विचारों को पकड़ कर, उसको भाषित शब्द का आकार देता है । कवि अपने समाज के भावों की मूर्ति एवं मुख होते हैं । कवि के द्वारा निर्मित भावों की मूर्ति समाज की नेत्री बन जाती है । साहित्य में मानव जाति के समस्त अनुभवों और विचारों का अक्षय भण्डार सुरक्षित है । साहित्य समष्टि और व्यष्टि की गति, गरिमा और प्राण है। समाज का स्वर, जागृति और प्रकाश है साहित्य |
वस्तुतः सत्य का स्वरूप साहित्य और साधना में मिलता है। समाज परिवर्तनशील है। वह गिरगिट की तरह रंग बदलता है किन्तु श्रेष्ठ साहित्य कभी पुराना नहीं पड़ता अपितु शाश्वत और नित नूतन रहता है । साहित्य का सम्बन्ध मूलत: भावों से होता है। साहित्यकार केवल सामाजिक जीवन को ही नहीं चित्रित करता, बल्कि मानवता के व्यापक धरातल पर वह व्यक्ति और समाज के नियमों का सन्तुलन स्थापित करता है और मनुष्य को उसकी भावभूमि से ऊपर उठा कर उदात्ततर बनाता हुआ आनन्द की सृष्टि करता है। इसी व्यापक मानवता से काव्य में स्थायित्व उत्पन्न होता है। यही कारण है कि शताब्दियों पुराने होने पर भी कालिदास, शेक्सपियर, होमर, मिल्टन और तुलसी आदि के काव्य आज भी मनोरम और प्रेरक हैं ।
सार्वदेशिक और सार्वकालिक विश्व काव्यों में कुछ समान प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। उनका मूल स्वर भिन्न नहीं होता और उसमें जीवन के शाश्वत सत्य का निरूपण होता है। यह सत्य इतिहास से भी महान् बन जाता है । इस तरह का काव्य स्थिति का विश्लेषण करते हुए किसी नवीन दिशा का संचार करता है । इसका आधार कवि की साधना, अनुभूति और जन-जीवन से प्राप्त प्रेरणा होती है। इसमें मानवीय भावों का तादात्म्य स्थापित हो जाता है । 'मूकमाटी' aad इन्हीं मूलभूत समस्याओं और विश्व सत्य को अभिव्यक्ति दी है।
'मूकमाटी' सन्त कवि आचार्य विद्यासागरजी की अद्यतन प्रौढ़तम काव्यकृति और सर्वोत्कृष्ट विश्व साहित्य की एक अनुपम कड़ी है । इसे अध्यात्म और रूपक महाकाव्य कहना समीचीन प्रतीत होता है । किस कृति को महाकाव्य कहा जाय और किस को नहीं, यह सर्वथा स्वाभाविक प्रश्न है ।
वस्तुतः युग जीवन की चेतना को आत्मसात् करने के कारण ही महाकाव्य युग की देन कहे जाते हैं । प्रत्येक युग के निर्माण में विभिन्न परिस्थितियों का योगदान होता है। इस कारण महाकाव्य के स्वरूप में भी परिवर्तन नज़र आता है। युगीन सन्दर्भों में आधुनिक हिन्दी महाकाव्य किसी भी प्रकार से अतीत के आर्ष महाकाव्यों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं ।
'मूकमाटी' का रचना फलक जहाँ रामायण, महाभारत और रामचरितमानस जैसे युग-प्रवर्तक महाकाव्यों की तरह व्यापक है, वहीं इसके रचयिता वाल्मीकि, व्यास और तुलसीदास जैसे साधक और सन्त भी हैं। इसके अलावा युग-चेतना का उद्घोष, जातीय जीवन का प्रतिनिधित्व, नवीन सामाजिक संरचना के उदात्त संकल्प, आध्यात्मिक निष्ठाओं के परिष्कार, महत् सांस्कृतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा और कलात्मक औदात्त्य के कारण 'मूकमाटी' को हिन्दी साहित्य का गौरव ग्रन्थ कहना उपयुक्त है।
आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट महाकाव्यों के लक्षणों पर सम्यक् विचार करना प्रासंगिक प्रतीत होता है । यद्यपि भारतीय और पाश्चात्य आचार्यों ने महाकाव्य के जो मानदण्ड निर्धारित किए, वे उनके समय के पूर्व में रचे गए महाकाव्यों