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248 :: मूकमाटी-मीमांसा
सिद्धान्त :
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निरंजन का गान करती है । / दर्शन का आयुध शब्द है -विचार, अध्यात्म निरायुध होता है / सर्वथा स्तब्ध - निर्विचार !
एक ज्ञान है, ज्ञेय भी / एक ध्यान है, ध्येय भी ।" (पृ. २८८ - २८९ ) 'अध्यात्म स्वाधीन नयन है / दर्शन पराधीन उपनयन
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दर्शन में दर्श नहीं शुद्धतत्त्व का/ दर्शन के आस-पास ही घूमती है
Tea और वितथता / यानी, / कभी सत्य-रूप कभी असत्य - रूप होता है
मानव की सत्
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दर्शन, जबकि / अध्यात्म सदा सत्य चिद्रूप ही / भास्वत होता है ।" (पृ. २८८ ) "उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य-युक्तं सत्" / सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अनन्त की अस्तिमा / सिमट - सी गई है । ...
ऐसे ही कर्मशील जगत् की मीमांसा 'कामायनी' एवं 'कुरुक्षेत्र' में भी की गई है, यथा :
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"यह नीड़ मनोहर कृतियों का / यह विश्व कर्म रंगस्थल है;
है परम्परा लग रही यहाँ / ठहरा जिसमें जितना बल है ।" ( कामायनी : प्रसाद )
" कर्मभूमि है निखिल महीतल, / जब तक नर की काया,
तब तक है जीवन के अणु - अणु / में कर्तव्य समाया ।
क्रिया - धर्म को छोड़ मनुज / कैसे निज सुख पायेगा ?
कर्म रहेगा साथ, भाग वह / जहाँ कहीं जायेगा ।" (कुरुक्षेत्र : दिनकर)
आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन- उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है / और
है यानी चिर-सत् / यही सत्य है यही तथ्य..!" (पृ. १८४-१८५)
" प्रति वस्तु जिन भावों को जन्म देती है / उन्हीं भावों से मिटती भी वह, वहीं समाहित होती है । / यह भावों का मिलन - मिटन सहज स्वाश्रित है / और / अनादि - अनिधन..!” (पृ. २८२-२८३)
वैज्ञानिक युग की मानव दृष्टि का यथार्थ चित्र इन शब्दों में व्यक्त कर 'मूकमाटी' कार ने युग बोध कराया है। मार्ग चुनना ही है तो शिवकारी ही चुनना चाहिए, यथा :
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'इस युग के / दो मानव / अपने आप को / खोना चाहते हैं - / एक भोग-राग को / मद्य-पान को / चुनता है; / और एक / योग-त्याग को आत्म- ध्यान को / धुनता है । / कुछ ही क्षणों में / दोनों होते विकल्पों से मुक्त / फिर क्या कहना ! / एक शव के समान / निरा पड़ा है, और एक/शिव के समान / खरा उतरा है।” (पृ.२८६)
और असत् वृत्तियों का ऐसा वर्णन निम्नांकित पंक्तियों में व्यक्त हुआ है, यथा :
"यह मनुज, जो ज्ञान का आगार ! / यह मनुज, जो सृष्टि का शृंगार ! सुन भूलो नहीं, सोचो- विचारो कृत्य / यह मनुज, संहार - सेवी, वासना का नृत्य ।