________________
'मूकमाटी' : स्वानुभूतिमयी रचनाधर्मिता का पर्याय
डॉ. राजमणि शर्मा
"कविता करना अनन्त पुण्य का फल है" - महाकवि दार्शनिक चिन्तक जयशंकर प्रसाद की यह उक्ति अपने आप में एक गम्भीर अर्थ समेटे हुए है । कवि-कर्म साधारण मानवीयता से दूर, बहुत दूर, इस लोक से परे की वस्तु है। इसलिए जब काव्य हेतु और प्रयोजन पर दृष्टि जाती है तो भारतीय समीक्षकों का यह मत भी स्पष्ट उभरता है कि प्रतिभा व्युत्पत्ति और अभ्यास जहाँ कविता की उपज के वैयक्तिक काव्य हेतु बन सकते हैं, वहीं कविता की सार्थकता पुरुषार्थ चतुष्टय - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप में है । तात्पर्य यह कि सभी कविता नहीं कर सकते । यह उन्हीं में अंकुरित होती है जिनमें तदनुकूल प्रतिभा होती है और व्युत्पत्तिपरक मेधा सक्रिय रहती है। निश्चय ही मानव भले ही बाहर से एक से दिखते हैं किन्तु सभी में इनका वैषम्य स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसका कारण क्या है ? मन सीधे उत्तर देता है - अनन्त पुण्य की कमी - बेसी । पाप और पुण्य को परिभाषित करना कठिन है। किन्तु मानवीय कल्याण-कामना निश्चय ही पुण्य है। यह पुण्य संचित होकर पुंज रूप में मानवता की कल्याण कामना के लिए उजागर होता है । स्वयं को सामाजिक परिवेश के साथ लेकर चलना, समाज को अपनी संवेदनाओं के अनुकूल ढालना, अपनी भावनाओं का उनमें सम्प्रेषण ही साहित्य है । और इसका कारण जहाँ अनन्त पुण्य का फल है, वहीं इसे सम्प्रेषित करने का आधार ज्ञानराशि का संचित कोश है। स्पष्टत: कविता एक तरफ रचनाकार के साधर्म्य का साक्षात् है तो दूसरी तरफ उसकी विद्वत्ता, ज्ञान के कोश का परिचायक भी । तात्पर्य यह है कि अनुभूति की सघनता की साधना कविता की कसौटी है ।
आचार्य विद्यासागर मानवता की कल्याण कामना के लिए तपस्यारत वह अक्षुण्ण मानवीय विभूति हैं जो दर्शन एवं लोक का तादात्म्यीकरण करते हैं। वे कार्य और कारण की खोज में प्रयत्नशील हैं। यह खोज संसार की वह चाबी है जो अपने समाधान में संसारी मोहग्रस्त जीव को भ्रमण से मुक्त करती है। मनुष्य को इस मोहग्रस्तता से मुक्ति दिलाने से बड़ा कल्याणकारी कार्य और क्या हो सकता है ? वे यह भी अनुभव करते हैं कि 'चेतन सम्बन्धी कार्य हो या अचेतन सम्बन्धी, बिना किसी कारण से उसकी उत्पत्ति सम्भव नहीं' और तभी वे अपने काव्य का विषय बनाते हैं - माटी को, मूकमाटी को । और यह मूक माटी लोक नहीं, लोक से बहुत दूर हमें उस आनन्द रूप परमतत्त्व का साक्षात्कार कराती है जिसमें शृंगार भी वैराग्य का बोध कराता है जो समीक्षकों के दृष्टिपथ का निर्माता है और जिसने 'संकर-दोष' से बचने के साथ-साथ वर्ण-लाभ को मानव जीवन का औदार्य व साफल्य माना है; जिसने शुद्ध सात्त्विक भावों से सम्बन्धित जीवन को धर्म कहा है; जिसका प्रयोजन सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ-संस्कारों से संस्कारित कर भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण संस्कृति को जीवित रखना है, ऐसी रचना है- 'मूकमाटी' । रचनाकार स्वयं तप रूपी अग्नि की आँच में दग्ध होकर खरा सोना जैसा अपनी रचना के माध्यम से खड़ा है। यह तप, लोक से दूर अलग-थलग रहकर तपस्या प्रतीत नहीं होता अपितु युगीन चेतना, सामयिक युगीन चेतना या यों कहिए सार्वकालिक या सार्वयुगीन चेतना से अनुप्राणित होकर लोक से जुड़ी होती है, ऐसी चेतना जो हर काल के लिए प्रासंगिक बने । कबीर, सूर, तुलसी, प्रेमचन्द, हजारीप्रसाद द्विवेदी, निराला, मुक्तिबोध आदि रचनाकार काल की सीमा के बाहर आकर भी प्रासंगिक बने हुए हैं । कारण स्पष्ट है,
की अनुभूति वह भोगी हुई अनुभूति है जो काल की सीमा, बन्धन के परे हर काल के लिए प्रासंगिक बनती है । 'मूकमाटी' के रचनाकार की अनुभूति भी ऐसी ही है जो माटी के आत्मकथन के रूप में उसकी आत्म पीड़ा और शोषण अनुभूति को अभिव्यक्त कर जाती है :