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मूकमाटी-मीमांसा :: 247
हैं, जबकि 'मूकमाटी' कार ने 'नियति' और 'पुरुषार्थ' की सच्ची परिभाषा की है, जो जीवन को सार्थकता प्रदान करती
यथा :
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किन्तु यहाँ अज्ञानी हो या नवभाग्यवादी, वह भौतिकता तक ही सोचता है, यथा- 'कायरता का एक सहारा, दैव-दैव आलसी पुकारा । '
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'नि' यानी निज में हो/ 'यति' यानी यतन - स्थिरता है अपने में लीन होना ही नियति है / निश्चय से यही यति है, / और 'पुरुष' यानी आत्मा - परमात्मा है / 'अर्थ' यानी प्राप्तव्य - प्रयोजन है आत्मा को छोड़कर/सब पदार्थों को विस्मृत करना ही / सही पुरुषार्थ है ।"
(पृ. ३४९)
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" पूछो किसी भाग्यवादी से, / यदि विधि - अंक प्रबल है, पद पर क्यों न देती स्वयं / वसुधा निज रतन उगल है ?" " एक मनुज संचित करता है / अर्थ पाप के बल से, और भोगता उसे दूसरा / भाग्यवाद के छल से || "
" लोभ - नागिनी ने विष फूँका, / शुरू हो गयी चोरी, लूट, मार, शोषण, प्रहार, / छीना-झपटी, बर जोरी। छिन्न-भिन्न हो गयी श्रृंखला / नर समाज की सारी, लगी डूबने कोलाहल के / बीच मही बेचारी ।"
" एक पन्थ है छोड़ जगत् को / अपने में रम जाओ, खोजो अपनी मुक्ति और / निज को ही सुखी बनाओ । अपर पन्थ है, औरों को भी /निज विवेक-बल दे कर, पहुँचो स्वर्ग-लोक में जग से / साथ बहुत को ले कर ।" (कुरुक्षेत्र : दिनकर )
इसीलिए 'मूकमाटी' कार ने नया सन्देश दिया है :
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'अब धन-संग्रह नहीं, / जन-संग्रह करो ! / और / लोभ के वशीभूत हो अंधाधुन्ध संकलितका / समुचित वितरण करो / अन्यथा, / धनहीनों में चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं । / चोरी मत करो, चोरी मत करो यह कहना केवल / धर्म का नाटक है / उपरिल सभ्यता" उपचार !”
(पृ. ४६७-४६८)
'मूकमाटी' अध्यात्म का लहराता सागर है । इसमें मुख्यत: अध्यात्म है। साथ ही दर्शन, धर्म और सिद्धान्त जैसे दुरूह और क्लिष्ट विषयों को भी सरल, सुबोध भाषा में अभिव्यक्त किया है। यथा अध्यात्म और दर्शन दिग्दर्शन :
"स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है । / अनेक संकल्प-विकल्पों में व्यस्त जीवन दर्शन का होता है । / बहिर्मुखी या बहुमुखी प्रतिभा ही दर्शन का पान करती है, / अन्तर्मुखी, बन्दमुखी चिदाभा