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मूकमाटी-मीमांसा :: 235
है। साधना में प्रज्वलित साधक को आत्मस्वरूप का अभिज्ञान हो जाता है । उसे यह बोध हो जाता है कि वह शरीर नहीं है वरन् सत्-चित्-आनन्दमय आत्मा है । इस स्थिति में वह सांसारिक दुःखों से पूर्णत: विमुक्त हो जाता है, क्योंकि दुःख आत्मा का स्वभाव है ही नहीं। उसका सहज स्वरूप तो आनन्दमय है, मंगलमय है । साधक के अंग-प्रत्यंग से, रग-रग से, रोम-रोम से मृदंग की-सी मानों ध्वनि निनादित होती रहती है जो तन और चेतना की भिन्नता का एहसास कराती हुई दैहिक चिन्ता से मुक्त रखती है । मृदंग की श्रुति-सुखद ध्वनि के माध्यम से कवि ने आत्मबोध का सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत किया है :
"धा धिन धिन "धा"/धा धिन धिन धा.. वेतन-भिन्ना, चेतन-भिन्ना,/ता तिन तिन "ता..
तातिन "तिन' "ता"/का तन "चिन्ता, का तन' 'चिन्ता ?" (पृ. ३०६) सेवक के हाथ से लेकर कुम्भ को सेठ ताज़े शीतल जल से प्रक्षालित करता है। उस पर स्वस्तिक चिह्न बनाता है। हल्दी-केसर-चन्दन, पान-पत्र और श्रीफल से सुशोभित मांगलिक कुम्भ को सेठ अष्ट पहलूदार चन्दन की चौकी पर स्थापित कर देता है । अतिथि सन्त के आगमन का समय सन्निकट है। अतिथि की प्रतीक्षा में लोग रजत, ताम्र, पीतलकलश लेकर पंक्तिबद्ध खड़े हैं । सेठ के हाथ में माटी का मंगल कुम्भ है । अतिथि के आहार दान से सभी स्वयं को कृतार्थ करना चाहते हैं। अतिथि के दर्शन होते ही दाता जयकार करने लगते हैं। भोजन-पान पाए बिना सन्त के लौट जाने से दाताओं को मर्मान्तक वेदना होती है । अतिथि सन्त दाता सेठ के यहाँ पधारते हैं । सेठ भक्ति सहित अतिथि की पूजा करता है। प्रासुक जल से आपूरित माटी का कुम्भ हाथ में लेकर अतिथि के चरणों में सेठ के झुकते ही गुरु -पद-नखदर्पण में कुम्भ अपने स्वरूप का दर्शन करता है । कुम्भ गुरु चरणों में स्वयं को समर्पित कर देता है। आहार-दान स्वीकार कर अतिथि सेठ को कृतकृत्य करते हैं। अतिथि के धर्मोपदेश के बाद सेठ घर लौटता है। इच्छा के विपरीत गुरुचरणों से अलग होकर सेठ को घर जाना पड़ रहा है, इसलिए वह क्लान्त है । गुरु के सत्संग के प्रभावस्वरूप सेठ विराग और सन्तोष से अनुप्राणित हो जाता है। सांसारिक क्षणभंगुरता का उसे तीव्र एहसास होने लगता है।
सेठ के व्यक्तित्व में सन्त के गुणों का अवतरण होता है । सेठ मृत्तिका पात्रों के उपयोग का संकल्प लेता है। माटी के पात्र के महत्त्व को देखकर स्वर्ण कलश विक्षुब्ध हो जाता है । सन्त पर आक्रोश व्यक्त करता हुआ वह कहने लगता है :
"कौन कहता है यह/कि/आगत सन्त में समता थी थी पक्ष-पात की मूर्ति वह,/समता का प्रदर्शन भी दस-प्रतिशत नहीं रहा/समता-दर्शन तो दूर । जिसकी दृष्टि में अभी/उच्च-नीच भेद-भाव है स्वर्ण और माटी का पात्र/एक नहीं है अभी
समता का धनी हो नहीं सकता वह !" (पृ. ३६२-३६३) सेठ को उपहास दृष्टि से देखता हुआ स्वर्ण कलश पुन: कहता है :
"गृहस्थ अवस्था में-/नाम-धारी सन्त यह/अकाल में पला हुआ हो अभाव-भूत से घिरा हुआ हो/फिर भला कैसे हो सकता है