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मूकमाटी-मीमांसा :: 233
साधक की अन्तर-दृष्टि में।/निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए/अन्यथा,
वह यात्रा नाम की है/यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई है।” (पृ. २६७) . बादल दल के साथ ओले सागर में समाहित होकर दु:खद नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं। यह उनके पापकर्म का परिणाम है । कई दिनों के बाद निरभ्र नीलाकाश के दर्शन और पवन प्रवाह के स्पर्शन को उल्लसित सौरमण्डल शुभकामना के स्वर में कह उठता है :
"धरती की प्रतिष्ठा बनी रहे, और
हम सब की/धरती में निष्ठा घनी रहे, बस ।” (पृ. २६२) विजयिनी धरती के वन-उपवन-पवन सब प्रभाकर के आलोक-निमज्जन से निखर जाते हैं। नवीन छवियों से मण्डित पृथ्वी पर सब कुछ नया-ही-नया दृष्टिगत होता है :
"नयी ऊषा तो नयी ऊष्मा/नये उत्सव तो नयी भूषा ...नयी खुशी तो नयी हँसी/नयी-नयी यह गरीयसी ।
नया मंगल तो नया सूरज/नया जंगल तो नयी भू-रज ।" (पृ. २६३) 'मूकमाटी' का चतुर्थ खण्ड सर्वोत्कृष्ट अंश है। समाज और संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में जीवन के अनेक आयामों को उद्घाटित करने के लिए इस खण्ड में विविध कथा-प्रसंगों की योजना की गई है । अपक्व कुम्भ को पकाने के लिए अवा की तैयारी से खण्ड प्रारम्भ होता है। बबूल, नीम, देवदारु और इमली की लकड़ियों से सुसज्जित अवे में कुम्भों को व्यवस्थित रूप में रखा जाता है। सब लकड़ियों की ओर से बबूल की लकड़ी अपनी अन्तर्व्यथा व्यक्त करती हुई कुम्भकार से कहती है :
"जन्म से ही हमारी प्रकृति कड़ी है/हम लकड़ी जो रहीं ...कभी-कभी हम बनाई जाती/कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए/प्राय: अपराधी-जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते, और उन्हें/पीटते-पीटते टूटती हम । इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें?/यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है
या/मनमाना 'तन्त्र' है।” (पृ. २७१) इसमें अपराधियों को प्रश्रय देने वाली और सीधे-सादे निरपराध व्यक्तियों को उत्पीड़ित करने वाली वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था की दयनीय स्थिति को उजागर किया गया है । वस्तुत: जनकल्याणकारी आदर्श से च्युत आज का लोकतन्त्र 'धनतन्त्र' और 'मनमाना तन्त्र' का पर्याय बन चुका है।
नव बार नवकार मन्त्र का उच्चारण करते हुए कुम्भकार अवा में अग्नि लगा देता है । अवे में अग्नि जलती है, बुझती है । जलन-बुझन की क्रिया कई बार चलती है। हर बार कुम्भकार अग्नि प्रज्वलित करता है । अग्नि कुम्भ को निर्दोष समझती है, इसलिए उसे जलाना नहीं चाहती। अपक्व कुम्भ अग्नि से प्रार्थना करता है :
"मैं कहाँ कह रहा हूँ/कि मुझे जलाओ ?/हाँ, मेरे दोषों को जलाओ !