________________
232 :: मूकमाटी-मीमांसा और सबकी ‘पापड़-सिकती-सी-काया' छटपटाने लगती है । मन्त्र कीलित की भाँति राजा भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है । लेकिन कुम्भकार मुक्ताराशि पर राजा का स्वत्व स्वीकार करते हुए उसे राजा को समर्पित कर देता है, जिससे राजकोष और समृद्ध हो जाता है।
मोतियों की वर्षा से धरती का वर्धित यश सागर के विक्षोभ का कारण बनता है । सूर्य के संकेत से बड़वानल सागर को प्रताड़ित करता है पर पृथ्वी के प्रति सागर के वैमनस्य में कोई कमी नहीं आती । पृथ्वी को प्रलय से पीड़ित करने के लिए बदलियों के स्थान पर वह अब तीन कृष्ण, नील और कपोतवर्णा पुरुष घन-बादलों को नियत करता है। प्रभाकर को जलाने के लिए आमन्त्रित राहु को सागर हीरा, मोती, मूंगा, पुखराज और नीलम की अनगिनत निधियों का उत्कोच देता है । रिश्वत से ही मानों सुकृतक्षीण राहु पाप-शाला के रूप में अत्यधिक काला होकर दुर्दर्श्य हो गया। राहु के इस चित्रण द्वारा सन्त कवि ने वर्तमान समय में घूसखोरी की बढ़ती प्रवृत्ति पर कठोर आघात किया है।
राहु सूर्य को निगलता है। धरती पर अन्धकार छा जाता है। वन, उपवन, पल्लव-पात, फल-फूल सभी क्रन्दन करने लगते हैं। पक्षी जल, भोजन और मनोरंजन का परित्याग कर देते हैं। प्रभाकर के पराभव को देखकर बादल फूले नहीं समाते । प्रलयकारिणी वर्षा प्रारम्भ हो जाती है । गुप्त रूप से अवतरित होकर अमरेश इन्द्र भी तीक्ष्ण बाणों से बादल दलों का बदन विदीर्ण कर देते हैं। सागर बादलों का दूसरा दल भेजता है जो ऐसी बिजली का उत्पादन करता है, जिसकी कौंध से सबकी पलकें अँप आती हैं। यहाँ तक कि अनिमेष इन्द्र भी निमेषवान् बन जाता है । उसकी आँखें बार-बार पलक मारने लगती हैं। आवेश में आकर इन्द्र बादलों पर वज्राघात करता है । आहत बादलों की चीख से समस्त सौरमण्डल ध्वनित हो जाता है । सागर के संकेत पर बादल लघु-गुरु, अणु-महा विभिन्न आकार-प्रकार के
ओलों का उत्पादन प्रारम्भ कर देते हैं। सम्पूर्ण सौरमण्डल उपलमय हो जाता है । मेघ उपलवृष्टि प्रारम्भ कर देते हैं। भूकण ओलों को करारी मात देकर शून्य में उछाल देते हैं। इस टकराव से कुछ ओले छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित होकर गिरते हुए ऐसा दृश्य उपस्थित करते हैं, मानों देवगण धरती का अभिनन्दन करने के लिए स्वर्ग से पारिजात पुष्प की पाँखुरियाँ बिखेर रहे हों । उपलवृष्टि का दृश्य कुम्भ समूह सहज-साक्षीभाव से देख रहा है, इसलिए वह पूर्णतया भयमुक्त है । आश्चर्यपरक बात तो यह है कि बरसाए गए तमाम ओलों में एक भी ओला कुम्भ को क्षत-विक्षत नहीं कर
सका:
"ऊपर घटती इस घटना का अवलोकन/खुली आँखों से कुम्भ-समूह भी कर रहा। पर,/कुम्भ के मुख पर/भीति की लहर-वैषम्य नहीं है सहज-साक्षी भाव से, बस/सब कुछ संवेदित है सरल-गरल, सकल-शकल सब !/इस पर भी/विस्मय की बात तो यह है कि,/एक भी ओला नीचे आकर/कुम्भ को भग्न नहीं कर सका!"
___ (पृ. २५१-२५२) किसी भी सुखद-दुःखद घटना का सहज-साक्षीभाव से अवलोकन आध्यात्मिक उपलब्धि है, पुण्य का प्रतिफल है। इस वैशिष्ट्य से सन्तुलित होने पर व्यक्ति अनुकूल-प्रतिकूल हर परिस्थिति में एक रस रहता है। कोई भी दुर्घटना उसे विचलित नहीं कर पाती । साधक जल की शीतलता और अनल के ताप को समान भाव से स्वीकार करता है । साधनायात्रा का महत्त्वांकन करता हुआ कुम्भ कहता भी है :
"जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं