________________
: मूकमाटी-मीमांसा
230 ::
"हर दिल किसी दिल पर फ़िदा होता है, हर इन्सान के मुहब्बत का तौर जुदा होता है । जो लड़खड़ाते को बढ़ कर उठा ले, वह इन्सान ख़ुदा होता है।"
शिल्पी ने चार अक्षरों की एक और कविता 'मैं दो गला' को कुम्भ पर उकेरा। तीन अर्थों से अनुप्राणित इस लघु कविता का पहला आशय अन्तर - बाह्य वाचिक विषमता का दिग्दर्शन कराता है। भीतर से कुछ एवं बाहर से कुछ और बोलने वाले लोगों की ही आज भरमार है। 'मैं दोगला' का दूसरा भाव-छली, धूर्त, कपटी और अभिमानी होना है। समाज में ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं है। 'मैं दो गला' का तीसरा अर्थ है - दो गला यानी गला दो, निर्मूल कर दो सकल विकारों के जनक अपने 'मैं 'को, अहंकार को, आपा को । आत्मबोध का यही सरल-सुगम उपाय है - 'आपा मेटि जीवत मरै, सो पावै करतार ।'
कुम्भको शिल्पी ने अंकों, चित्रों और शब्दों की इबारतों से अर्थवान् तो बना दिया, लेकिन उसका कच्चापन अभी शेष है । उसके जलीय अंश को निश्शेष करके ही उसकी अर्थवत्ता को स्थायित्व दिया जा सकता है । इसलिए कुम्भकार कुम्भ को तपी हुई खुली धरती पर रखता है । तप से ही जलत्व का, अज्ञान का विलय हो सकता है। दूसरी ओर जलत्व या वर्षा को प्रादुर्भूत करने का श्रेय भी तपः ऊष्मा को ही है। संकल्प-विकल्पों से तप्त अन्तर्मन का सन्ताप भी तपस्या से ही मिट सकता है। क्षणभंगुर भौतिक सुख की नीरसता का एहसास तप द्वारा प्राप्त चिन्मय आनन्द के बाद ही हो सकता है । सांसारिक भोगलिप्त व्यक्ति के प्रतीक के रूप में वसन्त के चित्रण द्वारा सन्त कवि ने भौतिक जीवन की नीरसता का अनावरण किया है :
"
'वसन्त का भौतिक तन पड़ा है/निरा हो निष्क्रिय, निरावरण, गन्ध-शून्य शुष्क पुष्प-सा । / मुख उसका थोड़ा-सा खुला है,
मुख से बाहर निकली है रसना / थोड़ी-सी उलटी-पलटी,
कुछ कह रही -सी लगती है -/ भौतिक जीवन में रस ना !” (पृ. १८० )
संसार और जीवन को परिभाषित करने वाले सूत्र 'उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य युक्तं सत्' का सन्त कवि ने व्यावहारिक भाषा में सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया है:
:
"आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन- उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है
और/ है यानी चिर- सत् / यही सत्य है यही तथ्य..!" (पृ. १८५)
उत्पाद-व्यय यानी जन्म-मृत्यु से युक्त यह जगत् ध्रुव है, सत्य है ।
तीस खण्ड में कवि ने प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से पुण्य की महत्ता प्रतिपादित करते हुए रति, ईर्ष्या, क्रोध आदि मानवीय भावों को रूपायित करने का प्रयत्न किया है। धरती के वैभव को समेट कर जल रत्नाकर बन जाता
है । अपने अंश सीप को सागर में प्रेषित कर धरती जलधि को मुक्ताओं का निधान बना देती है :
“जल को मुक्ता के रूप में ढालने में / शुक्तिका - सीप कारण है,
और / सीप स्वयं धरती का अंश है । / स्वयं धरती ने सीप को प्रशिक्षित कर सागर में प्रेषित किया है।" (पृ. १९३)