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234 :: मूकमाटी-मीमांसा
मेरे दोषों को जलाना ही / मुझे जिलाना है / स्व- पर दोषों को जलाना परम-धर्म माना है सन्तों ने । / दोष अजीव हैं / नैमित्तिक हैं, बाहर से आगत हैं कथंचित्;/गुण जीवगत हैं, / गुण का स्वागत है। तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से, / इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुम से मुझ में जल धारण करने की शक्ति है / जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, उसकी पूरी अभिव्यक्ति में / तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है।” (पृ. २७७)
सहज क्षमता की विकासगत बाधाएँ ही दोष हैं। जब तक इन दोषों का शमन नहीं किया जाता, तब तक जीवन का कोई अर्थ नहीं है । क्षमतावान् जीवन ही परहित जैसे उत्कृष्ट धर्म के सम्पादन में निरत हो सकता है। इसीलिए अपक्व कुम्भ अपनी जलधारक क्षमता की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए जलना चाहता है, तपना चाहता है, पकना चाहता है। परिपक्व होने पर ही उसका जीवन अर्थवान् बन सकता है।
अवा अग्नि से प्रदीप्त हो उठता है । अनल स्पर्श से कुम्भ की काया तपने लगती है, पर आत्मा उज्ज्वल होता हुआ शान्ति का अनुभव करता है। साधना पथ पर अविराम चलते रहने के संकल्प से अनुप्राणित हो कुम्भ अपूर्व शान्ति की याचना करते हुए प्रभु से निवेदन करता है :
"भुक्ति की ही नहीं, / मुक्ति की भी / चाह नहीं है इस घट में वाह-वाह की परवाह नहीं है / प्रशंसा के क्षण में ।
दाह के प्रवाह में अवगाह करूँ,/ परन्तु, / आह की तरंग भी
कभी नहीं उठे / इस घट में संकट में । / इसके अंग-अंग में / रग-रग में विश्व का तामस आ भर जाय / कोई चिन्ता नहीं, / किन्तु, विलोम भाव से यानी / तामस समता.!” (पृ. २८४)
कुम्भ की 'इस वांछा की अभिव्यक्ति द्वारा सन्त कवि ने आध्यात्मिक जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया है । भुक्ति-मुक्ति, सुख-दु:ख, राग-द्वेष से अलिप्त व्यक्तित्व ही विश्व के तामस को परिष्कृत करके 'समता' में रूपान्तरित कर सकता है।
कुम्भकार अवे से कुम्भ निकालता है । अग्नि में तपकर कुम्भ काला हो जाता है, मानों उसके भीतरी दोष बाहर आ गए हों और अन्तस्तल पाप रहित होकर निर्मल हो गया हो । भिक्षार्थी महासन्त के स्वागत के लिए नगर का महासेठ कुम्भ लाने के लिए अपना सेवक भेजता है । सेवक कुम्भ को सात बार बजाता है, जिससे क्रमश: सात संगीत स्वर 'सा ''रे''ग''म' 'ध'नि' निःसृत होते हैं । कवि इन स्वरों का आशय इस प्रकार स्पष्ट करता है :
" सा रे ग म यानी / सभी प्रकार के
दु:ख,
प ंध यानी ! पद-स्वभाव / और / नि यानी नहीं,
दु:ख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता,
मोह कर्म से प्रभावित आत्मा का
विभाव - परिणमन मात्र है वह । " (पृ. ३०५ )
तवे की आँच में तपकर कुम्भ का स्वरूप पूर्णतः परिवर्तित हो जाता है। वह अपक्व घट से मंगल घट बन जाता