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मूकमाटी-मीमांसा :: 163 लता-लतिकाएँ शिशिर छुवन से पीली पड़ गई हैं। इसी प्रकार कुमुदिनी, कमलिनी, चाँद, तारे, सुगन्ध, पवन आदि अनेक प्राकृतिक वर्णनों से यह काव्य ओत-प्रोत है । अवाँ का वर्णन पाठक के सामने मानों अवाँ का चित्र खींच देता है। जहाँ तक शब्दालंकार और अर्थालंकार के प्रयोग का प्रश्न है, कवि ने एक नितान्त नया दृष्टिकोण अपनाया है जो काव्य जगत् के लिए अनूठा है । अनेक शब्दों का प्रचलित अर्थ में प्रयोग कर आचार्य उनकी संरचना की व्याख्या नैरुक्तिक पद्धति से करते हैं और उनमें छिपे नए-नए अर्थों को उद्भावित करते हैं। इस प्रकार शब्द में छिपे अन्तरंग अर्थ को प्रगट कर वह न केवल पाठक को चमत्कृत ही करते हैं बल्कि अर्थ के अछूते आयामों का दर्शन कराते हैं। उदाहरण के तौर पर 'गहा', 'सत् युग', 'कलियुग', 'जलधी', 'सुधाकर', 'धरती', 'नदी', 'महिला', 'सुता' आदि की व्याख्याओं को देखा जा सकता है । शब्दों की यह नूतन व्याख्या कवि की अर्थान्वेषणी दृष्टि का परिचायक है ।
द्वितीय खण्ड में नव रसों की व्याख्या दर्शनीय है। यहाँ कवि ने रसों के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए उनकी हेयउपादेयता पर भी विचार किया है । अहिंसावादी मुनि की धारणा है कि वीर और रौद्र जैसे कठोर रसों के सेवन से मानवस्वभाव में विकृति आ जाती है :
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" वीर रस के सेवन करने से / तुरन्त मानव - खून खूब उबलने लगता है/ काबू में आता नहीं वह
दूसरों को शान्त करना तो दूर, / शान्त माहौल भी खौलने लगता है ज्वालामुखी - सम । " (पृ. १३१ )
"रुद्रता विकृति है विकार / समिट-शीला होती है।" (पृ. १३५ )
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महाकाव्य की अपेक्षा के अनुरूप कवि ने 'मूकमाटी' में नायिका रूप में माटी और नायक रूप में कुम्भकार को दर्शाया है । यद्यपि यहाँ नायक-नायिका का चुनाव काव्य-परम्परा से हटकर हुआ है फिर भी नायिका माटी में अपने नायक कुम्भकार के प्रति वे सब भाव समाहित हैं जो एक मानवीय नायिका में पाए जाते हैं। माटी का अपनी विरह व्यथा का वर्णन, नायक कुम्भकार के लिए चिर प्रतीक्षा आदि के भावों को माटी में दर्शाकर कवि ने उसे एकदम सजीव
दिया है। आदि से अन्त तक इस काव्य का पारायण करने पर कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि माटी एक निरा जड़ तत्त्व है । आचार्य ने इतने सुन्दर भावों से माटी को सँजोया है कि वह पाठक के हृदय पटल पर एक सुकुमार विरहणी की भाँति अंकित हो जाती है। काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से 'मूकमाटी' का अधिकांश भाग उद्धरणीय है, जो इस काव्य का अद्भुत गुण है ।
प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है कि 'मूकमाटी' एक दार्शनिक काव्य है । जिन दार्शनिक तत्त्वों को यहाँ प्रस्तुत किया गया है उसने 'मूकमाटी' को सच्चे अर्थों में काव्य के आसन पर आसीन कर दिया है । काव्यशास्त्रियों की दृष्टि में केवल मनोरंजन करना ही काव्य का प्रयोजन नहीं है बल्कि व्यवहार-बोध और कान्ता - सम्मत उपदेश देना भी काव्य का प्रयोजन है । स्वयं आचार्य ने सच्चे साहित्य की परिभाषा दी है :
" हित से जो युक्त - समन्वित होता है / वह सहित माना है / और सहित का भाव ही / साहित्य बाना है, / जिस के अवलोकन से सुख का समुद्भव - सम्पादन हो / सही साहित्य वही है / अन्यथा,
सुरभि से विरहित पुष्प - सम / सुख का राहित्य है वह
सार-शून्य शब्द - झुण्ड..!" (पृ. १११ )
फलतः अधिक अर्थ की चाह, गणतन्त्र, आतंकवाद जैसे प्रासंगिक विषयों पर कवि ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनकी दृष्टि में :