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मूकमाटी-मीमांसा :: 223 “यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।” (पृ. १९२) जीवन क्या मात्र ‘पा लेना' ही है? क्या 'धन-धान्य का अर्जन' ही सुख दे सकता है ? यदि नहीं, तो क्या है जीवन का परम प्राप्य ? कवि की दृष्टि देखिए :
"बाहुबल मिला है तुम्हें/करो पुरुषार्थ सही/पुरुष की पहचान करो सही, परिश्रम के बिना तुम/नवनीत का गोला निगलो भले ही,/कभी पचेगा नहीं वह प्रत्युत, जीवन को खतरा है !/पर-कामिनी, वह जननी हो,
पर-धन कंचन की गिट्टी भी/मिट्टी हो सज्जन की दृष्टि में !" (पृ. २१२) निश्चय ही, 'अर्थ' के लिए 'अनर्थ' करके स्वार्थसिद्ध करना जीवन को नष्ट करना है और अर्थ-लिप्सा से परे ‘परमार्थ' देखने का प्रयास करना ही जीवन का परम अर्थ है 'मूकमाटी' के कवि की दृष्टि में। परमार्थ भाव ही परम धर्म : आचार्यप्रवर विद्यासागरजी के इस 'मूकमाटी' काव्य का अन्तिम खण्ड है-'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख', जो स्वयं ही प्रतीकात्मक अर्थ की व्यंजना कराता है । कवि ने दृढ़तम आत्मविश्वास से सूत्रात्मक मन्त्र दिया है :
“नियम-संयम के सम्मुख/असंयम ही नहीं, यम भी
अपने घुटने टेक देता है।” (पृ. २६९) 'कुम्भ' की अग्नि-परीक्षा का जो उदात्त रूपक कवि ने बाँधा है, वह प्रतीकात्मक ध्वनि से समग्र सृष्टि के उन्नयन का मार्ग बता रहा है। 'कुम्भ' जब तक अग्नि-परीक्षा से नहीं गुज़रता, तब तब उसमें परिपक्वता नहीं आती, उसे जल को शीतलता प्रदान करने की क्षमता 'जल कर' ही तो मिल पाती है । सन्त भी तो 'कुम्भ' समान इस संसार रूपी अवा' में स्वयं को 'संयम' तथा 'साधना' की 'अग्नि' में तपा-तपाकर ही इस योग्य बनाता है कि 'वचनामृत जल' से सब की प्यास बुझा दे । कुम्भ ‘अग्नि' से अपने दोषों को जलाने की विनती करता है :
"मैं निर्दोष नहीं हूँ/दोषों का कोष बना हुआ हूँ/मुझ में वे दोष भरे हुए हैं। ....मैं कहाँ कह रहा हूँ/कि मुझे जलाओ ?/हाँ, मेरे दोषों को जलाओ ! मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है/स्व-पर दोषों को जलाना
परम-धर्म माना है सन्तों ने।” (पृ. २७७) अध्यात्म परम प्राप्य है : 'मूकमाटी' के प्रणेता सन्त-कवि ने 'दर्शन' और 'अध्यात्म' का ऐसा विशद तथा विलक्षण विश्लेषण किया है, जो कई ग्रन्थों में भी सहज विश्लेषित न हो सके । दिव्य ‘अग्नि' कहती है :
"दर्शन का स्रोत मस्तक है,/स्वस्तिक से अंकित हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है ।/दर्शन के बिना अध्यात्म-जीवन चल सकता है, चलता ही है/पर, हाँ !/बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं। ...अध्यात्म स्वाधीन नयन है/दर्शन पराधीन उपनयन ...दर्शन का आयुध शब्द है-विचार,/अध्यात्म निरायुध होता है