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'मूकमाटी' : अध्यात्म का एक जीवन्त दस्तावेज़
डॉ. आदित्य प्रसाद तिवारी आचार्य विद्यासागर प्रणीत 'मूकमाटी' एक ऐसा विचारप्रवण काव्य है, जिसमें कवि ने 'माटी' के अर्थगर्भित प्रतीक के माध्यम से जीवन साधना की सूक्ष्मताओं को विश्लेषित करने का सफल प्रयास किया है । 'मूकमाटी' में भावना, विचारणा और शिल्प सौन्दर्य का त्रित्व देखने को मिलता है । गूढ विचारों को सम्प्रेषणीय बनाने में कवि का शब्द-शोध कारगर सिद्ध हुआ है । अनेक शब्दों को परिभाषित करके कवि ने उन्हें नया अर्थोन्मेष किया है।
___ काव्य का आरम्भ सीमातीत शून्य के प्रभातकालिक रंगीन राग की आभा' से पूर्ण प्राकृतिक परिवेश से होता है। मानवीकरण के माध्यम से ऊषा, कुमुदिनी, कमलिनी, तारे, पवन आदि प्राकृतिक उपादानों के मनोरम चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। अज्ञातयौवना नायिका के रूप में ऊषा का शृंगार संवलित रूप कितना मोहक बन पड़ा है :
"प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है सर पर पल्ला नहीं है/और/सिंदूरी धूल उड़ती-सी
रंगीन-राग की आभा-/भाई है, भाई...!" (पृ. १) प्रभाकर करों के स्पर्श से अपने को बचाती, लज्जा के घूघट में अपनी 'सराग मुद्रा को पाँखुरियों की ओट' में छिपाती कुमुदिनी का बिम्ब एक सलज्जा नायिका को हमारे समक्ष प्रस्तुत कर देता है । अधखुली कमलिनी के चित्र के माध्यम से नारी की ईर्ष्या भावना को विवेचित किया गया है :
"अध-खुली कमलिनी/डूबते चाँद की/चाँदनी को भी नहीं देखती आँखें खोल कर ।/ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं,
और "वह भी/स्त्री-पर्याय में-/अनहोनी-सी घटना !" (पृ.२) सरिता तट की माटी और माँ धरती के वार्तालाप द्वारा कृतिकार ने जीवन दर्शन को व्यक्त करने की चेष्टा की है। माटी अपनी पतितावस्था से मुक्त होने के लिए धरती माँ से प्रार्थना करती है। माटी की यह छटपटाहट तुच्छता की पीड़ा से व्यथित अनेकानेक अभावग्रस्त दलित व्यक्तियों की छटपटाहट है। दीनता का गहरा एहसास होने पर ही व्यक्ति उन्नति की ओर उन्मुख हो सकता है, क्योकि 'पतन पाताल का अनुभव ही, उत्थान-ऊँचाई की आरती उतारना है।' आध्यात्मिकता की उन्नति के लिए आस्था के साथ साधना भी आवश्यक है । साधना-संकुल व्यक्ति अनुकूलताप्रतिकूलता की परवाह किए बिना निरन्तर आगे बढ़ते हुए उद्देश्य की प्राप्ति करता है । कवि ने ठीक ही कहा है :
“मीठे दही से ही नहीं,/खट्टे से भी/समुचित मन्यन हो
नवनीत का लाभ अवश्य होता है।” (पृ. १३-१४) चार खण्डों में विभाजित 'मूकमाटी' काव्य का पहला खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' है। इस खण्ड में माटी की संकरता का वर्णन किया गया है । कुम्भकार मिट्टी से कंकर कणों को हटाकर, उसे परिशुद्ध करने के पश्चात् ही मंगल घट निर्मित करने में कृतकार्य होता है। इसी तरह गुरु अपने शिष्य के जीवन में मिश्रित बेमेल अवान्तर तत्त्वों को हटाकर, उसके व्यक्तित्व को लोकमंगलकारी स्वरूप प्रदान करता है। इस प्रकार से संस्कारित शिष्य का 'बेसहारा जीवन सहारा देने वाला बनता है' । अपने जीवन की समस्त वर्णसंकरता, कलुषता का निषेध करता हुआ शिष्य परिशुद्ध आचरण का