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मूकमाटी-मीमांसा :: 221 आचार्य कवि श्री विद्यासागर के काव्य ग्रन्थ 'मूकमाटी' का प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' रूपक के माध्यम से 'शुभत्व' के स्वरूप का सम्यक् दर्शन हमें कराता है। जीवन की सार्थकता : 'मूकमाटी' काव्य के द्वितीय खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में कवि सन्त ने रूपकों के माध्यम से जीवन की सार्थकता' पर जो सारगर्भित भाव-मुक्ताएँ सर्जित की हैं, वे उनके ज्ञान, अनुभव तथा साधना का परिचय सहज ही देती हैं । 'फूल और काँटे' के प्रसंग में कवि का चिन्तन दर्शनीय है :
“दम सुख है, सुख का स्रोत/मद-दुःख है, सुख की मौत !/तथापि यह कैसी विडम्बना है, कि/सब के मुख से फूलों की ही/प्रशंसा होती है,
और/शूलों की हिंसा !/क्या यह/सत्य पर आक्रमण नहीं है ?" (पृ. १०२) इसी क्रम में 'सुख-दुःख'का केन्द्र 'मन' को मानकर कवि अनूठी अनुभूति को अत्यन्त सहज शब्दों में मुखर करता है :
“मन्त्र न ही अच्छा होता है/ना ही बुरा/अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है/स्थिर मन ही वह/महामन्त्र होता है/और अस्थिर मन ही/पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है,
एक सुख का सोपान है/एक दुःख का सो पान है।" (पृ. १०८-१०९) साहित्य को आचार्यश्री ने 'जीवन' से जोड़कर ही पूर्ण और सार्थक होते देखा है। आचार्यश्री की दृष्टि दर्शनीय
"शान्ति का श्वास लेता/सार्थक जीवन ही/स्रष्टा है शाश्वत साहित्य का। इस साहित्य को/आँखें भी पढ़ सकती हैं/कान भी सुन सकते हैं
इस की सेवा हाथ भी कर सकते हैं/यह साहित्य जीवन्त है ना!" (पृ. १११) और इसी प्रकार कवि 'वाणी की सार्थकता' को सहज शब्दों में इस प्रकार व्यक्त करता है कि शब्द हृदय को छू लेते हैं :
"अनुचित संकेत की अनुचरी/रसना ही/रसातल की राह रही है यानी ! जो जीव/अपनी जीभ जीतता है/दुःख रीतता है उसी का सुख-मय जीवन बीतता है/चिरंजीव बनता वही/और उसी की बनती वचनावली/स्व-पर-दुःख निवारिणी
संजीवनी बटी'!" (पृ. ११६-११७) जीवन समस्त उलझनों से बचकर यदि शान्त रस का अनुभव कर सके, तभी जीवन सार्थक' है, यह दृष्टि कवि की साधना और तप को ही ध्वनित करती है :
"शान्त-रस का क्या कहें,/संयम-रत धीमान को ही/ ओम्' बना देता है। जहाँ तक शान्त रस की बात है /वह आत्मसात् करने की ही है/कम शब्दों में निषेध-मुख से कहूँ/सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है । यूँ गुनगुनाता रहता/सन्तों का भी अन्तःप्रान्त वह ।/"धन्य !"
(पृ. १५९-१६०)