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220 :: मूकमाटी-मीमांसा
बोना यानी वपन भी हो सकता है ।" (पृ. ५५-५६) शुभत्व के इसी क्रम में कंकरों को मुस्कराती माटी ने जो उद्बोधन दिया है, उसमें आचार्यप्रवर श्री विद्यासागरजी के साधक जीवन के अनुभवों की अनन्त शीतलता के साथ-साथ भाषा के प्रति उनकी सहज निष्ठा भी सम्मिलित हो गई है। 'राही' तथा 'राख' शब्दों का जैसा सार्थक और जीवन्त प्रयोग कवि ने किया है, वह देखते ही बनता है :
"संयम की राह चलो/राही बनना ही तो/हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही/विलोम-रूप से कह रहा है-/रा"ही"ही"रा"
और/इतना कठोर बनना होगा/कि/तन और मन को/तप की आग में तपा-तपा कर/जला-जला कर/राख करना होगा/यतना घोर करना होगा तभी कहीं चेतन-आत्मा/खरा उतरेगा।/खरा शब्द भी स्वयं विलोम-रूप से कह रहा है-/राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?
रा"ख"ख"रा"।" (पृ. ५६-५७) शुभत्व के प्रसंग में ही रस्सी' का वह कथन उद्धृत करना चाहूँगा, जहाँ कवि संयम' का महत्त्व बताते हुए कहता है:
"संयम के बिना आदमी नहीं/यानी/आदमी वही है/जो यथा-योग्य सही आदमी है/हमारी उपास्य-देवता/अहिंसा है/और जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है/वहाँ निश्चित ही/हिंसा छलती है ।/अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है/और/निर्ग्रन्थ-दशा में हो/अहिंसा पलती है,
पल-पल पनपती,/"बल पाती है।” (पृ. ६४) 'मूकमाटी' काव्य के रचयिता ने अपने जीवन दर्शन को व्यक्त करने के लिए कुएँ की मछली' का प्रसंग लेकर अत्यन्त सहज और सरल भाव से ‘सत्त्व' का परिचय कराया है :
"सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा !/और असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ/सत् को असत् माननेवाली दृष्टि
स्वयं कलियुग है, बेटा!" (पृ. ८३) और जब 'मछली' धात्री माटी से 'सल्लेखना' देने की प्रार्थना करती है, तो 'मूकमाटी' का यशस्वी कवि उसे माध्यम बनाकर जैसे सम्पूर्ण जगत् को ही 'शुभत्व से परिपूर्ण' कल्याणमयी शुभ सल्लेखना' देता है :
“सल्लेखना, यानी/काय और कषाय को/कृश करना होता है, बेटा ! काया को कृश करने से/कषाय का दम घुटता है,/"घुटना ही चाहिए। ...वातानुकूलता हो या न हो/बातानुकूलता हो या न हो सुख या दुःख के लाभ में भी/भला छुपा हुआ रहता है, देखने से दिखता है समता की आँखों से,/लाभ शब्द ही स्वयं विलोम-रूप से कह रहा है-/लाभ "म"ला।” (पृ. ८७)