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204 :: मूकमाटी-मीमांसा
"अपने हों या पराये,/भूखे-प्यासे बच्चों को देख
माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता।"(पृ. २०१) वह पुरुष का मार्गदर्शन करने वाली है :
"... पुरुष को रास्ता बताती है/सही-सही गन्तव्य का'महिला' कहलाती वह !” (पृ. २०२)
फिर :
“अबला के अभाव में/सबल पुरुष भी निर्बल बनता है ।" (पृ. २०३) कवि गृहस्थ की गरिमा को पुरुषार्थों से संयुक्त करते हुए कहता है :
"धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों से/गृहस्थ जीवन शोभा पाता है ।" (पृ. २०४) ___ कवि की संवेदना और चिन्तन दृष्टि बहुत गहराई तक गई है। भावुकता और कठोर तथ्यपरकता का अनमोल मेल उसकी अभिव्यक्ति में जिस रूप में मिलता है, वह दुर्लभ ही है । तुच्छ से तुच्छ वस्तु में भी कुछ महान् और श्रेष्ठ पा लेने की उसकी भावना निरन्तर बनी हुई है।
जीवन मूल्यों का उद्घाटन, स्थापना, श्रेष्ठ आचरण की भव्य परिस्थिति एवं कुप्रवृत्तियों में दुष्परिणामों की ओर सन्त कवि पाठकों का ध्यान निरन्तर आकृष्ट करता रहता है :
"अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) और फिर:
"क्या सदय-हृदय भी आज/प्रलय का प्यासा बन गया है ?" (पृ. २०१) आज के मनुष्य में पनपते हिंसक भाव, सहज भावना के विकराल रूप में परिवर्तित होने, ईर्ष्या, द्वेष तथा आतंकवाद के फैलाव पर भी उसका ध्यान गया है। वह चिन्तित है कि मनुष्य का जीवन उन्नत होगा या नहीं? क्या वह स्वार्थी मात्र और पराक्रम रहित रह जाएगा ? क्या उसे संयम के आनन्द का ज्ञान नहीं ? या अधम पापियों का उत्थान करने की आकांक्षा उसमें नहीं है ? चेतना रहित होकर क्या वह अपनी सृजनात्मक वृत्ति को त्याग देगा ? क्या परिश्रम न करके ऐसे सुन्दर जीवन को कालुष्यपूर्ण कर देगा ? क्या उसका जीवन श्रद्धा, सेवा रहित होगा ? वह माटी और कुम्भकार के द्वारा अग्रिम स्वर्णिम जीवन की आशा दिखाता है :
"उसी के तत्त्वावधान में/तुम्हारा अग्रिम जीवन
स्वर्णिम बन दमकेगा।" (पृ. १७) फिर नवस्फूर्ति का आह्वान करता है :
"अपने-अपने कारणों से/सुसुप्त-शक्तियाँ-/लहरों-सी व्यक्तियाँ,
दिन-रात, बस/ज्ञात करना है तुम्हें।” (पृ. १७) मानव मूल्यों की दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक, सामाजिक सन्दर्भो में स्थापना करते हुए कवि ने उनके व्यावहारिक पक्ष की महत्ता बतलाई है । वर्तमान युग के अनुरूप आदर्श की स्थापना करते हुए तथ्यपरकता को भी कवि ने ध्यान में