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मूकमाटी-मीमांसा :: 215
देश का हर नागरिक व्याकुल और चिन्तित है । इस आतंकवादी प्रवृत्ति को पड़ोसी देश तथा अन्य देश प्रोत्साहन एवं सहायता दे रहे हैं। जो देश भारत की उत्तरोत्तर उन्नति, ज्ञान-विज्ञान एवं कृषि के क्षेत्रों में हुई प्रगति, प्राचीन गौरव गाथा एवं सांस्कृतिक वैभव से ईर्ष्या करते हैं और भारत की एकता तथा अखण्डता को खण्डित होते देखना चाहते हैं, वे ही आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। कवि श्री विद्यासागर की मान्यता है कि आतंकवाद का अवतार तभी होता है जब किसी के बढ़ते सम्मान को देखकर अन्य को आघात लगता है । आघात फिर प्रतिशोध को जन्म देता है जो दूसरे का अहित ही नहीं करता, अपना भी करता है :
"यह बात निश्चित है कि/मान को टीस पहुँचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है। अति-पोषण या अति-शोषण का भी यही परिणाम होता है,/तब/जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं, बदले का भाव "प्रतिशोध !/जो कि/महा अज्ञानता है, दूरदर्शिता का अभाव
पर के लिए नहीं,/अपने लिए भी घातक !" (पृ. ४१८) 'मूकमाटी' काव्य में इस ईर्ष्या भाव का उदय कवि ने तब दिखलाया है जब अग्नि-परीक्षा के पश्चात् माटी कुम्भ पक्व कुम्भ का रूप धारण कर, किसी सेठ के करकमलों में पहुँच कर पूजा का पात्र (कलश) बनना चाहता है। स्वर्ण कलश के सम्मान को ठेस लगती है कि माटी के कुम्भ को मेरी अपेक्षा महत्त्व अधिक दिया जा रहा है। स्वर्ण कलश को कवि ने विकसित या वैभव सम्पन्न देश, यथा- अमेरिका आदि, का प्रतीक माना है और माटी कुम्भ को विकासशील या निर्धन देश, यथा- भारत आदि का प्रतीक माना है । बस यहीं से स्वर्ण कलश की ईर्ष्या उग्र रूप धारण कर उग्रवाद या आतंकवाद के दल को आहूत करती है। आतंकवादी दल किस प्रकार भयंकर रूप धारण कर तथा तरह - तरह के आग्नेय अस्त्र लेकर आता है, इसका वर्णन कवि की लेखनी बिम्बात्मक शैली में प्रस्तुत करती है :
0 "जिनके हाथों में हथियार हैं,/बार-बार आकाश में वार कर रहे हैं,
जिससे ज्वाला वह/बिजली की कौंध-सी उठती, और आँखें मुद जातीं साधारण जनता की इधर ।" (पृ.४२६) "जिनके ललाट-तल पर/कुंकुम का त्रिकोणी तिलक लगा है, लगता है महादेव का तीसरा नेत्र ही/खुल-कर देख रहा है। राहु की राह पर चलनेवाला है दल/आमूल-चूल काली काया ले । क्रूर-काल को भी कँपकँपी छूटती है/जिन्हें
एक झलक लखने मात्र से !" (पृ. ४२८) सेठ और सेठ के परिवार पर आतंकवादी दल लगातार वार-प्रहार करता है तो फिर सेठ वेगवती नदी की जलधारा में कटि से कुम्भ को बाँधकर कूद पड़ता है। केवल उसका मुख-मस्तक ही दृष्टिगोचर होता है। आतंकवाद फिर भी शान्त नहीं होता और पत्थरों की वर्षा करता है, जिससे आतंकित होकर सेठ आतंक के समक्ष आत्मसमर्पण करना चाहता है परन्तु नदी उसे ऐसा करने से मना करती है । नदी के उद्गार दर्शनीय हैं :
“सत्य का आत्म-समर्पण/और वह भी/असत्य के सामने ? हे भगवन् !/यह कैसा काल आ गया,/क्या असत्य शासक बनेगा अब ?