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मूकमाटी-मीमांसा :: 211 'भी' से स्वच्छन्दता-मदान्धता मिटती है/स्वतन्त्रता के स्वप्न साकार होते हैं,
सद्विचार सदाचार के बीज/'भी' में हैं, 'ही' में नहीं।” (पृ. १७३) बीजाक्षरों में कितनी शक्ति निहित होती है, कितना सार निहित होता है, यही दिखलाना कवि को अभीष्ट है । नए-नए सन्दर्भो से अक्षरों को जोड़ने की कला में कवि श्री विद्यासागरजी बहुत ही प्रवीण हैं। प्राचीन सूत्रों की नई-नई व्याख्याओं को प्रस्तुत करने में उन्होंने जिस ज्ञाननिधि का परिचय दिया है उससे उनकी ज्ञानगरिमा प्रकट होती है। शब्दों में गहरे पैठ कर और उनके मर्म को समझ कर उन्होंने जो उनका दूरगामी अर्थ निकाला है, जो उन्हें एक नई अर्थवत्ता प्रदान की है, वह उनकी गुरु गम्भीरता को स्पष्ट करती है । यह केवल वाणी का विलास मात्र नहीं है, कवि की अपनी विद्यापारंगतता की विशेषता है।
सेठ के परिवार का संकोच दूर करने के लिए कुम्भ के मुख से निस्सृत निम्नपंक्तियाँ यही तो बताना चाहती हैं कि स्वतन्त्रता की कामना किसे नहीं होती। बन्धन चाहे सोने का ही क्यों न हो, है तो वह बन्धन ही। पिंजरे में रहने वाला शुक भी क्या मुक्ति की कामना नहीं करता ? जो स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता मानते हैं, कवि उनसे सहमत नहीं है। तभी वह कहता है :
“यहाँ/बन्धन रुचता किसे?/मुझे भी प्रिय है स्वतन्त्रता तभी "तो"/किसी के भी बन्धन में/बंधना नहीं चाहता मैं, न ही किसी को/बाँधना चाहता हूँ //जानते हम, बाँधना भी तो बन्धन है !/तथापि/स्वच्छन्दता से स्वयं बचना चाहता हूँ/बचता हूँ यथा-शक्य/और/बचना चाहे हो, न हो
बचाना चाहता हूँ औरों को/बचाता हूँ यथा-शक्य ।” (पृ. ४४२-४४३) स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता दो अलग अलग शब्द हैं। कवि ने स्वच्छन्दता की वकालत न कर स्वतन्त्रता के पक्ष में अपना मत प्रकट किया है, जो उचित ही है । वह नहीं चाहता कि स्वतन्त्रता का दुरुपयोग हो।
इसी प्रकार समाजवाद के विषय में कवि की निर्धान्त धारणा है कि समाजवाद केवल नारा लगाने से नहीं आता। जब तक समानता की स्थापना नहीं होती, वर्गभेद समाप्त नहीं होता, भ्रातृत्व-भावना उत्पन्न नहीं होती, वैयक्तिक स्वार्थों को तिलांजलि नहीं दी जाती तब तक समाजवाद की आधारशिला नहीं रखी जा सकती। कवि ने खोखले समाजवाद की खिल्ली उड़ाई है। मैं सबसे पहले और 'समाज' बाद में। जब तक यह अर्थ समाजवाद का लगाया जाता रहेगा तब तक समाजवाद बहुत दूर रहेगा। कवि का व्यंग्य कितना सटीक है, देखिए :
"फिर भला बता दो हमें,/आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी ?
सबसे आगे मैं/समाज बाद में!" (पृ. ४६१) समाजवाद के सही अर्थ की ओर इंगित करते हुए कवि यह स्थापित करना चाहता है कि सामूहिक भावना से भरा होने के कारण ही वह समाजवाद कहला सकता है, अन्यथा नहीं :
"अरे कम-से-कम/शब्दार्थ की ओर तो देखो !/समाज का अर्थ होता है समूह
और/समूह यानी/सम-समीचीन ऊह-विचार है/जो सदाचार की नींव है। कुल मिला कर अर्थ यह हुआ कि/प्रचार-प्रसार से दूर