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196 :: मूकमाटी-मीमांसा
कमर - कटि थी उसकी, / वही अब और कटी है, / जिधर की टाँग टूटी है उधर की ही आँख फूटी है, /... कहाँ तक कहें / काँटे की कटीली काया दिखती अब अटपटी-सी है।" (पृ. ९५-९६)
तीन बदलियाँ, बादल-दल अवा का जलना, आतंकवाद का प्रकरण आदि विशेष रूप से चित्रात्मक शैली के लिए उल्लेखनीय हैं ।
(घ) उपदेशात्मक शैली : प्रस्तुत काव्य के लघु कलेवर को जो इतना विस्तृत रूप दिया है, इसका एक मात्र कारण हैइसकी उपदेशात्मकता । आचार्यश्री इसके माध्यम से सुन्दर सन्देश जन-जन तक पहुँचाना चाहते हैं। माटी, कुम्भ, अग्नि, नदी आदि के माध्यम से तो उन्होंने सदुपदेशों को प्रस्तुत किया ही है, साथ ही, जहाँ-कहीं भी उन्हें थोड़ा-सा भी प्रसंग मिला है वहीं वे अपनी सुभावना के आवेश को न रोक सके। उदाहरण के लिए जब कुम्भकार अवा में अग्नि प्रज्वलित करता है तो अग्नि कहती है :
पर
" अपनी कसौटी पर अपने को कसना / बहुत सरल है, सही-सही निर्णय लेना बहुत कठिन है, / क्योंकि, अपनी आँखों की लाली / अपने को नहीं दिखती है ।" (पृ. २७६ )
तभी प्रज्वलित अवा से स्वैर - विहारिणी ध्वनि निस्सृत होती है- 'अरे राही, सुन !" (पृ. २९० ) । यह नदी या काल का प्रवाह पथिकों का सच्चा पथ-प्रदर्शक है। सेठ के यहाँ मुनिवर के आहार के पश्चात् जो उपदेश दिया गया है वह श्रावकों को स्व-पर की पहचान कराता है। और तो क्या, आतंकवाद के प्रश्न में भी यह उपदेशात्मकता विद्यमान रहती है :
" सज्जन अपने दोषों को / कभी छुपाते नहीं, छुपाने का भाव भी नहीं लाते मन में प्रत्युत उद्घाटित करते हैं उन्हें ।” (पृ. ४६८)
सती-साध्वी सीता का सुन्दर उदाहरण देकर उपर्युक्त विषय को स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में आदि अन्त तक सभी प्रसंगों में उपदेशात्मकता विद्यमान है। इस आधार पर यदि इसे उपदेशात्मक शैली का महाकाव्य कहा तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
यदि सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो इस काव्य में पशु-पक्षी से सम्बन्धित ज्ञान (श्वान, सिंह, कछुवा, खरगोश, घड़ियाल, भ्रमर, मक्षिका, घोड़ा इत्यादि), कृषि ज्ञान (मिट्टी, बीज, खाद इत्यादि), शकुन-अपशकुन ज्ञान की झलक भी यदा-कदा दृष्टिगोचर होती है। आचार्यप्रवर की विविधमुखी ज्ञानशीलता इस बात का प्रतीक है कि उन्हें विविध शास्त्रों का समुचित ज्ञान है । यह ध्यातव्य है कि जिन ग्रन्थों व शास्त्रों के ज्ञान का उल्लेख किया गया है आचार्यश्री ने उनका एतावत् विस्तार से अध्ययन नहीं किया, बल्कि कहना चाहिए कि उन्होंने यहाँ प्रसंगवश उन विषयों का संकेत मात्र दिया गया है, उनकी विस्तृत जानकारी देना लक्ष्य नहीं था ।
वस्तुतः कृतिकार के व्यक्तित्व का प्रभाव किसी न किसी रूप में कृति पर अवश्य पड़ता है। इसी कारण उनकी बहुआयामी प्रतिभा की झलक प्रस्तुत ग्रन्थ में आ गई है। अतः कहा जा सकता है कि आचार्यप्रवर को धार्मिक, साहित्यिक, दार्शनिक, वैद्यक, संगीत शास्त्र, गणित शास्त्र, व्याकरण, अलंकार शास्त्र, शब्द शास्त्र आदि का समीचीन ज्ञान है । वे एक धर्मध्याता होकर भी अनेक शास्त्रों से सम्बन्धित विषय के ज्ञाता भी हैं ।