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198 :: मूकमाटी-मीमांसा
और इधर नीचे / निरी नीरवता छाई,
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निशा का अवसान हो रहा है/ उषा की अब शान हो रही है। " (पृ. १) " प्राची के अधरों पर / मन्द मधुरिम मुस्कान है / सर पर पल्ला नहीं है / और सिंदूरी धूल उड़ती-सी / रंगीन - राग की आभा - / भाई है, भाई..!” (पृ. १)
इसमें लक्षणा, व्यंजना के चमत्कार से ऐसे अनेक बिम्बों का सर्जन है जो संवेद्य अमूर्त भाव को मूर्त रूप प्रदान करता है। शब्दशक्तियों के चमत्कार से अमूर्त संवेद्य भावों को कल्पना द्वारा मूर्त रूप दिया गया है। सम्पूर्ण काव्य में अनेकश: स्फुट बिम्ब हैं जो इसके समग्र बिम्ब या महाबिम्ब का सर्जन करते हैं। यही इस महाकाव्य की कथावस्तु है । इसके स्फुट बिम्ब संश्लिष्ट हैं । परिणामतः समग्र बिम्ब भी संश्लिष्ट हो गया है।
'मूकमाटी' के महाकाव्य के सन्दर्भ में नायक-नायिका का प्रश्न भी विचारणीय है । इसमें माटी नायिका है और कुम्भकार को नायक माना जा सकता है । पर लौकिक धरातल पर यह सम्भाव्य नहीं है । अत: इसके समूचे मानीपन को आध्यात्मिक रोमांस (Spiritual Romance) के स्तर पर ग्रहण करना समीचीन होगा। माटी प्रतीक्षारत है युग-युग से कुम्भकार के सहृदय हाथों के संस्पर्श की । उसका संस्पर्श मिलते ही उसकी अव्यक्त मंगल मूर्ति घट में रूपायित होती है । पर मंगल घट की सार्थकता गुरु के पाद - प्रक्षालन में है । यह गुरु इस काव्य के भक्त सेठ के श्रद्धा ये आधार हैं। आध्यात्मिक यात्रा एवं विशुद्धीकरण की साधनाक्रम में तो इस काव्य के नायक गुरु ही हैं और अन्तिम रूप से गुरु के नायक अर्हन्त देव हैं।
प्रस्तुत काव्य का प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' परिशोधन की प्रक्रिया का द्योतक है। मंगल घट का पिण्ड रूप मृदु माटी के रूप में शुद्ध दशा की प्राप्ति करता है :
"केवल / वर्ण-रंग की अपेक्षा / गाय का क्षीर भी धवल है आक का क्षीर भी धवल है / दोनों ऊपर से विमल हैं
परन्तु / परस्पर उन्हें मिलाते ही / विकार उत्पन्न होता है
क्षीर फट जाता है / पीर बन जाता है वह !
नीर का क्षीर बनना ही / वर्ण-लाभ है, / वरदान है।" (पृ. ४८-४९)
दूसरा खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं' साहित्य चेतना के विविध आयामों को छूता है। नव रसों की नई व्याख्या, संगीत की अन्त: प्रकृति का उद्घाटन, ऋतु वर्णन, तत्त्व दर्शन आदि सभी इसमें समाहित हैं । शब्दोच्चारण मात्र ‘शब्द' है । सम्पूर्ण अर्थ को समझना 'शब्द बोध' और समूचे बोध को अनुभूतियों में, आचरण में उतारना 'शोध' है:
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"बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है कि / शब्दों के पौधों पर / सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं, / ... बोध का फूल जब ढलता-बदलता, जिसमें / वह पक्व फल ही तो / शोध कहलाता है । बोध में आकुलता पलती है / शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से / तृप्ति का अनुभव होता है, / फूल का रक्षण हो और/ फल का भक्षण हो ।” (पृ. १०६ - १०७)