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मूकमाटी-मीमांसा :: 195 कलियुग में सत्-युग ला सकता है,/धरती पर "यहीं पर
स्वर्ग को उतार सकता है ।" (पृ. ३६२) 'आकाशवाणी' के माध्यम से आचार्यश्री आधुनिक युग को सन्देश देना चाहते हैं :
“परिश्रम करो/पसीना बहाओ/बाहुबल मिला है तुम्हें करो पुरुषार्थ सही/पुरुष की पहचान करो सही, परिश्रम के बिना तुम/नवनीत का गोला निगलो भले ही,
कभी पचेगा नहीं वह/प्रत्युत, जीवन को खतरा है !" (पृ. २११-२१२) १२. विभिन्न शैलीगत विज्ञता
प्रस्तुत ग्रन्थ में मानक हिन्दी के माध्यम से विभिन्न शैलियाँ प्रयुक्त हैं। भावानुरूप शैली बदलती चली जाती है। कहीं प्रसादगुण सम्पन्न शैली है तो कहीं माधुर्यगुणयुता, तो कदाचित् ओजगुणपरिपूर्णा शैली का भी प्रयोग है । ऐसा लगता है कि शैलियाँ उनके भावों का अनुगमन करती रही हैं। उन शैलियों में कुछ प्रमुख शैलियों का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में पाया गया है, जो इस प्रकार है : (क) व्याख्यात्मक शैली : आचार्यश्री ज्ञान के अक्षयकोष तथा धर्म के अनुपम भण्डार हैं। जैसे जन-सामान्य तक विषय को समझाने के लिए वे अपने उपदेशों में विषय की व्याख्या करते हुए चलते हैं, उसी प्रकार प्रस्तुत रचना में भी यथास्थान कथ्य को स्पष्ट किया गया है। इसमें, उन्होंने साठ-सत्तर बार 'यानी' शब्द का प्रयोग किया है, बाईस बार 'और सुनो' तथा दस बार 'सुनो' शब्दों का प्रयोग करके अपने कथन की व्याख्या की है। इसके अतिरिक्त कारण सुनो, ‘एक बात और', 'परन्तु सुनो, 'सुनो-सुनो, तथा और यह भी देखो' आदि शब्दावली द्वारा व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग ग्रन्थ में दर्शनीय है। (ख) नाटकीय शैली : आचार्यश्री की द्वितीय शैलीगत विशेषता नाटकीयता है । ग्रन्थ का मूल उद्देश्य सन्मार्गोपदेश तथा जिनधर्मानुरूप सत्कर्म की प्रेरणा है। इस नीरस व धार्मिक विषय में सरसता भरने के लिए नाटकीय शैली सक्षम होती है। आचार्यश्री ने प्रस्तुत ग्रन्थ में माटी, पृथ्वी, काया की छाया, सागर, पवन, स्वर्णकलश, अनार का रस, केसरिया हलुआ, मच्छर, मत्कुण, नदी आदि सजीव-अजीव प्राणियों का मानवीकरण करके माटी-पृथ्वी, माटी-शिल्पी, कंकर-माटी, दाँत-कुम्भकार, रस्सी-रसना, मछली-मछली, सागर-बादल, फूल-वृक्ष, पवन-फूल, कुम्भकार-बबूल की लकड़ी, अग्नि-कुम्भकार, स्वर्णकलश-कुम्भ, झारी-शिल्पी, झारी-स्वर्णकलश, नदी-कुम्भ, आतंकवाद-माटी आदि का वार्तालाप कराकर नाटकीय शैली द्वारा सम्पूर्ण काव्य में प्राण डाल दिए हैं। पवन और फूल का कथोपकथन कितना मनोरम है:
“पवन के इस आशय पर/उत्तर के रूप में, फूल ने/मुख से कुछ भी नहीं कहा,
मात्र गम्भीर मुद्रा से/धरती की ओर देखता रहा।” (पृ. २५९) (ग) चित्रात्मक शैली : इस शैली का प्रयोग प्रस्तुत ग्रन्थ का वैशिष्ट्य है। प्रारम्भ में कुम्भकार के आगमन पर माटी का जीता जागता चित्र है । कुम्भकार का रस्सी की गाँठ खोलना, रस्सी से बालटी बाँधकर कुएँ से जल खींचना आदि अनेक वर्णन आदि से अन्त तक भावों के चित्र हृदय पर अंकित करते हैं। कुदाली से माटी खोदते समय जब एक काँटा कट जाता है तो उसका चित्र इस प्रकार चित्रित है :
"माटी खोदने के अवसर पर/कुदाली की मार खा कर जिसका सर अध-फटा है/जिसका कर अध-कटा है/दुबली पतली-सी..