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मूकमाटी-मीमांसा :: 187
(घ) सांख्य दर्शन : यह दर्शन द्वैतवादी है । यह संसार के विकास में पुरुष (चेतन) एवं प्रकृति (अचेतन) दो तत्त्वों का योग मानता है । इस दर्शन-सम उल्लेख प्रस्तुत कृति में अनेक बार किया गया है। प्रथम अध्याय में कवि कहता है :
"प्रकृति और पुरुष के/सम्मिलन से विकृति और कलुष के/संकुलन से/भीतर ही भीतर
सूक्ष्म-तम/तीसरी वस्तु की/जो रचना होती है...।" (पृ. १५) शिल्पी व माटी के प्रसंग में प्रकृति व पुरुष के रमण का उल्लेख है । अन्यत्र पुरुष के पुरुषार्थ, प्रकृति का पुरुष को कुछ न देना आदि का उल्लेख है । सेठ की चिकित्सा के विषय में कहा है :
"पुरुष होता है भोक्ता/और/भोग्या होती प्रकृति ।" (पृ. ३९१) पुरुष प्रकृति के सामने आँखें बन्द कर लेता है। इसी प्रसंग में कहा है :
"पुरुष और प्रकृति/इन दोनों के खेल का नाम ही/संसार है...
खेल खेलने वाला तो पुरुष है/और/प्रकृति खिलौना मात्र !" (पृ. ३९४) (ङ) वेदान्त दर्शन : इसका संकेत ग्रन्थान्त में है जहाँ संसार का कारण माया या अज्ञान माना है :
“यह देही मतिमन्द/कभी-कभी/रस्सी को सर्प समझ कर
विषयों से हीन होता है...।" (पृ. ४६२) उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि ग्रन्थकार को जैनेतर ग्रन्थों व दर्शनों का ज्ञान है। ३. वैद्यक शास्त्रों का ज्ञान
ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यप्रवर एलोपैथिक व होम्योपैथिक दवाइयों में विश्वास नहीं रखते। उनकी आस्था प्राकृतिक उपचारों में ही है । इसीलिए उनका कथन है :
“माटी, पानी और हवा/सौ रोगों की एक दवा।" (पृ. ३९९) सेठ के अस्वस्थ होने पर अनेक वैद्यराज बुलाए जाते हैं। सेठ की मूर्छा को दूर करने के लिए छनी मिट्टी में शीतल जल मिलाकर एक माटी का लोंदा सेठ के मस्तक पर रखा जाता है, जिससे सेठ का ताप कम होने लगा :
“जल से भरे पात्र में/गिरा तप्त लौह-पिण्ड वह/चारों ओर से जिस भाँति/जल को सोख लेता है, उसी भाँति टोप भी
मस्तक में व्याप्त उष्णता को/प्रति-पल पीने लगा।" (पृ. ४००) कुम्भ मिट्टी के अनेक उपयोगों को बताता हुआ कहता है :
"मात्र हृदय-स्थल को छोड़कर/शरीर के किसी भी अवयव पर
माटी का प्रयोग किया जा सकता है ।" (पृ. ४०५) पका हुआ या बिना पका हुआ घाव हो, भीतरी या बाहरी चोट हो, कितनी ही कानों की पीड़ा हो, तेज से तेज बुखार हो, नकसीर आती हो, जुकाम हो अथवा पूरा या आधा शिरःशूल हो तो भी माटी उपयोगी सिद्ध होती है । यदि