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190 :: मूकमाटी-मीमांसा तीर्थ) (पृ. ४५२), धरणी>नीरध (पृ. ४५३) आदि की दोनों रूपों में क्षमता प्रस्तुत की है। उदाहरणार्थ :
. "स्व की याद ही/स्व-दया है।" (पृ. ३८) ० "राही बनना ही तो/हीरा बनना है।" (पृ. ५७)
0 "राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?" (पृ. ५७) (ङ) शब्दों के परस्पर अन्तर : प्रसंगवश वासना-दया(पृ. ३८), दर्शन-अध्यात्म (पृ. २८७-२८९) जैसे शब्दों के अन्तर को भी स्पष्ट किया है। ७. नीति और सूक्तियों का ज्ञान
आचार्यप्रवर ने शास्त्रों में सन्तों द्वारा प्रणीत कतिपय नीतियों, सूक्तियों व लोकोक्तियों का भी यथाप्रसंग निर्देश किया है । कुछ सूक्तियाँ उनकी स्व-रचित हैं। जहाँ कहीं पर अन्य विद्वानों की पंक्तियाँ उद्धृत भी हैं वहाँ स्पष्ट उल्लेख कर दिया है । ये नीतियाँ या सूक्तियाँ संस्कृत ग्रन्थों, नीति शास्त्रों में व लोक प्रचलित हैं। जैसे- "काँटे से ही काँटा निकाला जाता है" (पृ. २५६)- (द्रष्टव्य-कण्टकेनैव कण्टकम्)।
१. “पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो।" (पृ. ५०-५१) २. "पूरा चल कर विश्राम करो!" (पृ. १२९) । ३. “सर्व-सहा होना ही/सर्वस्व को पाना है जीवन में।" (पृ. १९०) ४. “जब फूल से काम चल सकता है/शूल का व्यवहार क्यों ?" (पृ. २५७) ५. संगति के प्रभाव को व्यक्त करते हुए कहा है :
"उजली-उजली जल की धारा/बादलों से झरती है धरा-धूल में आ धूमिल हो/दल-दल में बदल जाती है। वही धारा यदि/नीम की जड़ों में जा मिलती/कटुता में ढलती है;
...विषधर मुख में जा/विष-हाला में ढलती है ।" (पृ.८) ६. "मन-वांछित फल मिलना ही/उद्यम की सीमा मानी है।” (पृ. २८४) ७. "जिसकी कर्तव्य निष्ठा वह/काष्ठा को छूती मिलती है/उसकी सर्वमान्य प्रतिष्ठा तो..
काष्ठा को भी पार कर जाती है।" (पृ. २५८) ८. “भावना भव-नाशिनी।" (पृ. ३०२) ९. “पूज्यपादों की पूजा से ही/मनवांछित फल मिलता है।" (पृ. ३३७) १०. “जब सुई से काम चल सकता है/तलवार का प्रहार क्यों ?" (पृ. २५७) ११. एक सूक्ति है :
"आमद कम खर्चा ज्यादा/लक्षण है मिट जाने का। कूबत कम गुस्सा ज्यादा/लक्षण है पिट जाने का।" (पृ. १३५) "गगन का प्यार कभी/धरा से हो नहीं सकता मदन का प्यार कभी/जरा से हो नहीं सकता; ...सुजन का प्यार कभी/सुरा से हो नहीं सकता।