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182 :: मूकमाटी-मीमांसा 'नमः' शब्द और उस के विपरीत अक्षर-क्रम से बने ‘मनः' शब्द पर अपनी व्याख्या में कहा है : “हे अग्नि ! प्रतिदिन हम नमः को करते हुए धी द्वारा तुम्हारे निकट पहुँचते हैं, क्योंकि तुम हमारे तम को, अन्धकार को द्योतित कर सकते हो, ज्योति बना सकते हो । 'मनः' जीवात्मा की वह बहिर्मुख चेतना है जो इन्द्रियों के साथ स्थूल विषयों की ओर दौड़ती है। इसके विपरीत चेतना है 'नम:' । यह अन्तर्मुख होकर हमारे सूक्ष्म जगत् में गतिशील होती है।" नवधा : नवधा शब्द का भक्ति के सन्दर्भ में प्रयोग (पृ. ३२३) आचार्यश्री की विशाल हृदयता का द्योतक है। उपयोग : जैन धर्म का यह पारिभाषिक शब्द है । इसका मुख्य अर्थ है-ज्ञान एवं दर्शन । अथवा देखने-जानने की शक्ति। 'मूकमाटी' में इसके अनेक प्रयोग हैं, उनमें से दो-तीन प्रयोग देखिए :
० "माटी को रात्रि भी/प्रभात-सी लगती है :
दुःख की वेदना में/जब न्यूनता आती है/दुःख भी सुख-सा लगता है। .
और यह/भावना का फल है-/उपयोग की बात !" (पृ. १८) ० "उपयोग का अन्तरंग ही/रंगीन ढंग वो/योगों में रंग लाता है।” (पृ. १२६) ० "बाहर सो भीतर, भीतर सो बाहर/वपषा - वचसा - मनसा
एक ही व्यवहार, एक ही बस-/बहती यहाँ उपयोग की धार!" (पृ.२७४-७५) "व्याधि से इतनी भीति नहीं इसे/जितनी आधि से है/और आधि से इतनी भीति नहीं इसे/जितनी उपाधि से । इसे उपधि की आवश्यकता है/उपाधि की नहीं, माँ ! इसे समधी - समाधि मिले, बस!/अवधि - प्रमादी नहीं । उपधि यानी/उपकरण - उपकारक है ना!/उपाधि यानी
परिग्रह - अपकारक है ना!" (पृ.८६) कुछ आप्त वाक्य मननीय हैं :
- "तन और मन को/तप की आग में/तपा-तपा कर
जला-जला कर/राख करना होगा/यतना घोर करना होगा
तभी कहीं चेतन- आत्मा/खरा उतरेगा।" (पृ. ५७) ० "प्रमाद पथिक का परम शत्रु है।” (पृ. १७२) 0 "जब दवा काम नहीं करती/तब दुआ काम करती है।" (पृ. २४१) 0 "काया में रहने मात्र से/काया की अनुभूति नहीं,
माया में रहने मात्र से/माया की प्रसूति नहीं,
उनके प्रति/लगाव-चाव भी अनिवार्य है।" (पृ. २९८) 0 "पर से स्व की तुलना करना/पराभव का कारण है।" (पृ. ३३९)
“दम सुख है, सुख का स्रोत/मद दुःख है, सुख की मौत !" (पृ. १०२) कबीर ने कभी माटी के मुख में ये शब्द रखे थे :
"माटी कहे कुम्हार सों, तू क्या रूंधे मोय ।