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180 :: मूकमाटी-मीमांसा
में उसका सन्दर्भ द्रष्टव्य है :
"मोह और असाता के उदय में / क्षुधा की वेदना होती है यह क्षुधा तृषा का सिद्धान्त है । / मात्र इसका ज्ञात होना ही साधुता नहीं है, / वरन् / ज्ञाने के साथ साम्य भी अनिवार्य है श्रमण का श्रृंगार ही / समता - साम्य है..!" (पृ. ३३०)
विषय-कषाय : ये अध्यात्म ज्ञान के बाधक हैं। 'मूकमाटी' के अनुसार :
"विषयों और कषायों का वमन नहीं होना ही उनके प्रति मन में/अभिरुचि का होना है।" (पृ. २८० )
ईर्ष्या समिति : जैनाचार विषयक एकाध बिन्दु के रूप में यहाँ देखें । पण्डित दौलतराम जी ने 'छहढाला' में ईर्या समिति सम्बन्ध में कहा है :
"परमाद तजि चौकर मही लखि, समिति ईर्या तैं चलें ।” (६/२)
अर्थात् आलस्य रहित होकर सामने की चार हाथ जमीन देखते हुए, सूर्य के प्रकाश में, जीव-जन्तुओं को बचा कर, शुद्ध मार्ग से गमन करने का नाम 'ईर्या समिति' है । गोचरी के लिए जाते हुए सन्दर्भ में 'मूकमाटी' में कहा है :
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" दाता की इस भावुकता पर / मन्द मुस्कान - भरी मुद्रा को मौनी मुनि मोड़ देता है / और / चार हाथ निहारता - निहारता पथ पर आगे बढ़ जाता है ।" (पृ. ३१८)
पूजा पाठ : इस सम्बन्ध में 'मूकमाटी' में कहा है।
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" नसियाजी में जिनबिम्ब है / नयन मनोहर, नेमिनाथ का बिम्ब का दर्शन हुआ / निज का भान हुआ / तन रोमांचित हुआ हर्ष का गान हुआ ।" (पृ. ३४६)
अनेकान्तवाद – स्याद्वाद : अनेकान्तवाद जैन दर्शन की आधार भित्ति है। विश्व को इसके द्वारा हिंसा निवारण का एक नितान्त मौलिक मार्ग उपलब्ध हुआ है। अनेकान्तवाद मानव मात्र को दुराग्रह की विभीषिका से त्राण देता है। अनैकान्तवाद एवं स्याद्वाद एक ही वस्तु के दो पार्श्व हैं। इनमें प्रथम वस्तुपरक होता है, द्वितीय शब्द परक । भगवान् महावीर ने इसका उपदेश इस प्रकार दिया है कि अनेकान्ताधारित भाव के लिए स्याद्वाद सम्मत भाषा अपेक्षित है। दोनों परस्पर पूरक हैं। आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' में इस समस्या को अत्यन्त सरल रूप में समझाया है :
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'ही' और 'भी' / ... ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने - अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं । 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है
'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।" (पृ. १७२ )
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'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को