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मूकमाटी-मीमांसा :: 183
इक दिन ऐसा आयगा, मैं घूँगी तोय ॥"
स्पष्टत: इन शब्दों में हिंसा की दुर्गन्ध है । भावों का संसार ही अलग है । वहाँ तर्क को आश्रय नहीं है। मुझे क्षमा किया जाय यदि मैं यह कहने का साहस करूँ कि माटी ने कालान्तर में, उस पर थोपी गयी हिंसा का अनुभव किया और उसके परिहारार्थ अहिंसा के प्रबलतम पोषक आचार्य श्री विद्यासागरजी की सेवा में प्रतिक्रमण के रूप में उक्त अपराध के मिथ्या होने की मानसी प्रार्थना निवेदन की । आचार्यश्री ने उस पर 'तथास्तु' तो कहा ही, उसके अतिरिक्त, माटी के मूकत्व को वाचालता के अभयदान स्वरूप एक ग्रन्थ ही अस्तित्व में ला दिया, जिससे आत्मसाधकों को अपने उद्धारार्थ एक प्रबल सम्बल भी प्राप्त हो गया । धन्य हैं आचार्यश्री की अनुपम उदारता एवं लोक कल्याण की भावना ।
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'मूकमाटी' सरीखा नितान्त मौलिक ग्रन्थ लिखना कैसे सम्भव हुआ, इस जिज्ञासा का समाधान सहज ही नहीं हो सकता, यदि यह नहीं माना जाय कि उसके प्रणयन में आपके गुरु आचार्यप्रवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज का परोक्ष मार्गदर्शन ही निरन्तर आचार्यश्री का सहायक रहा और उनका स्नेहसिक्त आशीर्वाद भी ।
आचार्यश्री के गहन मनन, चिन्तन, अनुभवादि का क्षेत्र अत्यन्त विशाल एवं असीम है। आचार्यश्री ने संसार की बहुविध परिस्थितियों को जल-कमलवत् जाँचा, परखा और अनेक को अपने महाकाव्य में सटीक एवं विशुद्ध धर्मनिष्ठ परिप्रेक्ष्य में सँजोया भी है। मानवों के लिए ही नहीं, प्राणिमात्र के लाभार्थ नई-पुरानी कल्याणकारी मान्यताओं को 'नित्य नई, प्राचीन गई' विधा के अनुसार जिस निष्ठा - कौशल से महाकाव्य में स्थान दिया गया, वह महान् आश्चर्य -
जनक है ।
इस निवेदन का उद्यापन राष्ट्रगान में प्रयुक्त कुछ समान शब्दों से विभूषित आचार्यश्री के आशीर्वादात्मक शब्दों से किया जाय :
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" मोक्ष की यात्रा / सफल हो / मोह की मात्रा / विफल हो
धर्म की विजय हो / कर्म का विलय हो
जय हो, जय हो / जय-जय-जय हो !" (पृ. ७६-७७)
पृष्ठ १९०-१९१
लो! प्रखर प्रखरतर -- 'जलधि को बार बार
भर कर ---
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