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आचार्य विद्यासागर की बहुज्ञता - 'मूकमाटी' काव्य के सन्दर्भ में
डॉ. श्रीचन्द्र जैन
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'मूकमाटी' आचार्यप्रवर विद्यासागर की सद्विचार - सागरप्रवाहिका, शान्त रसास्वादिका, धार्मिक भावना से परिव्याप्त आधुनिक युग की अनुपम कृति है । आचार्यप्रवर की दिगम्बर जैन मुनि रूप नग्न मुद्रा, कदाचित् कथंचित् स्वीकार्य अत्यल्प आहारवृत्ति, शीतोष्ण प्रभृति परिषह - सहनशीलता आदि दुःसाध्य परिचर्या आज के सुख-साधनसम्पन्न वैज्ञानिक युग में भी परिरक्षणीय है - निःसन्देह आश्चर्यजनक है । क्षुत्-पिपासादि घोर तपश्चरण का अविचल व अवरिल पालन करके भी आपने 'मूकमाटी' जैसी कृति का सृजन किया है, अत्यन्त विस्मयपूर्ण है । यह ग्रन्थ जहाँ आचार्यप्रवर की शालीनता, धर्मज्ञता, अहिंसावादिता, आध्यात्मिकता, गुणज्ञता, काव्यज्ञता व विधायिनी प्रतिभा का प्रतीक है, वहाँ आपके बहुमुखी व्यक्तित्व का भी दर्पणवत् प्रत्यक्ष प्रमाण है । प्रस्तुत रचना में आचार्यप्रवर की धर्मदर्शन-नीति-संगीत-अलंकार - गणित-वैद्यक-काव्य-व्याकरण आदि शास्त्रों के ज्ञान की झलक इस प्रकार दृष्टिगोचर होती है :
१. जैन धर्म व दर्शन का ज्ञान
आचार्यप्रवर विद्यासागरजी महाराज दिगम्बर जैन आचार्य हैं, अतः स्वाभाविक है कि वे जैनागमों के ज्ञाता हैं। आचार्यप्रवर का यह जैनागम विषयक ज्ञान निम्न रूपों में उभर कर आया है :
(क) जैनागमों से उद्धृत पंक्तियों के रूप में : निम्नलिखित सूत्र व पंक्तियाँ 'तत्त्वार्थसूत्र' आदि संस्कृत व अन्य प्राकृत जैनागमों से उद्धृत हैं- "परस्परोपग्रहो जीवानाम् " (पृ. ४१), "धम्मं सरणं पव्वज्जामि " (पृ. ७५), "दयाविसुद्धो धम्मो” (पृ. ८८), "खम्मामि खमंतु मे" (पृ. १०५), "उत्पाद - व्यय - धौव्य - युक्तं सत्" (पृ. १८४) । अन्तिम सूत्र की सुन्दर व्याख्या इस प्रकार की है :
"आना, जाना, लगा हुआ है / आना यानी जनन - उत्पाद है जाना यानी मरण - व्यय है / लगा हुआ यानी स्थिर - ध्रौव्य है और/ है यानी चिर - सत् / यही सत्य है यही तथ्य..!" (पृ. १८५)
इस प्रकार उन्होंने सभी सूत्रों की सुन्दर व्याख्याएँ की हैं।
(ख) जैन धर्मानुसार आचार : जैनधर्मानुसार प्राणियों का आचरण 'अहिंसा परमो धर्मः' के अनुरूप है । ग्रन्थ का नायक कुम्भ स्वयं सदाचारी, परोपकारी व अहिंसावादी है। कुम्भकार स्वयं जैन श्रावकाचार को अपनाता है। मिट्टी में मिलाने के लिए वह छान कर पानी का प्रयोग करता है। पानी को वह कुएँ से जैन विधि के अनुसार निकाल कर, छान कर, शेष जीवाणुयुक्त जल को धीरे से कुएँ में डालता । यह प्रक्रिया जैनागमानुसार है । द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में आचार्यप्रवर कहते हैं :
"लो, अब शिल्पी / कुंकुम - सम मृदु माटी में
मात्रानुकूल मिलाता है/ छना निर्मल-जल ।" (पृ. ८९ )
कुम्भकार जब 'अवा' में अग्नि प्रज्वलित करता है तो णमोकार मन्त्र पढ़ता है। मुख्यरूप से सेठ जैन श्रावक का नियम पालन करता है। वह प्रतिदिन मन्दिर जाता है, अरिहन्त देव का अभिषेक करके गन्धोदक सिर पर धारण करता है । नित्य नियमपूर्वक अष्ट द्रव्य के द्वारा भक्तिभाव से पूजन करता है । वह जैन मुनि को आहारार्थ आने पर