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मूकमाटी-मीमांसा :: 179 दृष्टान्त:
"पूरा भरा दीपक ही/अपनी गति से चलता है, तिल-तिल होकर जलता है,/एक साथ तेल को नहीं खाता,
आदर्श गृहस्थ-सम/मितव्ययी है दीपक।" (पृ. ३६९) ये उदाहरण ग्रन्थ में से बिना प्रयास उठाए गए हैं। वैसे भी यहाँ अलंकारों का अल्प दिग्दर्शन ही अभिप्रेत था, विस्तृत विश्लेषण नहीं। अत: इच्छा रहते हुए भी अलंकारों के कई सुन्दर उदाहरण नहीं दिए जा सके हैं। उनमें से एक का केवल संकेत मात्र ही मैं और देना चाहूँगा । पृष्ठ ३४९ से ३५१ तक 'घर की ओर जा रहा सेठ...' के सम्बन्ध में कहे गए उपमानों की जो झड़ी लगी है, वह मन्त्रमुग्ध की स्थिति उत्पादक है।
'मूक माटी' अनेक अर्थों में मानव मात्र के उद्धार का ग्रन्थ है। किन्तु एक दिगम्बर जैनाचार्य द्वारा लिखे जाने के फलस्वरूप उस धर्म में प्रचलित उपकरणों का विवेचन विशिष्टता लिए हुए है। उसकी कुछ जानकारी यहाँ दिया जाना उचित होगा। अर्हन्त : नवकार मन्त्र में प्रथम नमन इन्हीं को है। उनके व्यक्तित्व की कुछ झलक ही यहाँ सम्भव है, जो ग्रन्थ के पृष्ठ ३००-३०१ एवं ३२६-३२७ में दिए गए तथ्यों में पाई जा सकती है। वैसे ही वर्णन ग्रन्थ में कुछ अन्य स्थानों पर भी प्राप्त हो सकते हैं, यथा- नवकार मन्त्र का प्रयोग पृष्ठ २७४ पर उपलब्ध है। धर्म : इसके सम्बन्ध में कहा गया है :
"दया-विसुद्धो धम्मो !" (पृ. ८८); "धम्मं सरणं पव्वज्जामि !" (पृ. ७५)
“धम्मं सरणं गच्छामि !" (पृ. ७०); "धम्मो दया-विसुद्धो!"(पृ. ७०)। अहिंसा : निर्ग्रन्थ दशा :
"हमारी उपास्य-देवता/अहिंसा है/और/जहाँ गाँठ-ग्रन्थि है वहाँ निश्चित ही/हिंसा छलती है ।/अर्थ यह हुआ कि । ग्रन्थि हिंसा की सम्पादिका है/और/निर्ग्रन्थ-दशा में ही
अहिंसा पलती है,/पल-पल पनपती,/"बल पाती है।” (पृ. ६४) भावना : जैन धर्म में बारह भावनाएँ मान्य हैं। विरक्ति विषयक सतत चिन्तन भावनाओं का क्षेत्र है । मोक्ष रूपी सुख, शिव की प्राप्ति की ओर आत्मा को अग्रसर करने के लिए ये मुख्य उपकरणों में से हैं। इनका सन्दर्भ पृष्ठ ३००-३०२ पर है, और है अन्त में निष्कर्ष :
"यूँ ! कुम्भ ने भावना भायो/सो, 'भावना भव-नाशिनी'
यह सन्तों की सूक्ति/चरितार्थ होनी ही थी, सो हुई।" (पृ. ३०२) क्षमा : अहिंसा के प्रमुख साधनों में से एक इसका उद्देश्य है :
"खम्मामि, खमंतु मे-/क्षमा करता हूँ सबको,
क्षमा चाहता हूँ सबसे,/सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी!" (पृ. १०५) 'परस्परोपग्रहो जीवनानाम्'- इस सूत्र सूक्ति का कुशल चरितार्थ पृष्ठ ४१ पर है। समता : जैन धर्म में समता का अतिविशिष्ट स्थान है । उसे श्रमणों की मुख्य सहायक कहा/माना गया है। 'मूकमाटी'